वह बचपन क्या खूब था हमारा
वह बचपन क्या खूब था हमारा
जब बगियों में खेला करते थे हम ,
जब मारते, डॉंटते पितृ थे तो
मातृ के निकट भागा करते थे हम ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
गॉंव की लहलहाती फसलों को देख ,
झूम – झूम नाच – गया करते थे हम ,
फसलों की हरियाली में भ्रमण से ,
जन्नत का सुख सम्प्राप्ति थी हमें ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
यारा की कुशल यारी को ,
कैसे भूल सकते हैं हम!
जब एक कुक्षि में ही ,
दो चंद्रहास विराजते थे हम ,
उस बचपन की यारी की ,
एक अजब आख्यान थी ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
जब अपनी पाजी – पन से हम ,
आचार्यों को आंदोलित करते थे ,
पर वह अबोध तनुज तमीज हमें ,
हमारी पाजी – पनों को भूल जाते थे ,
उन्हीं आचार्य की आशीष, कृपा से ,
मंजिल की ओर अग्रसर हुए हम ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
हयात की पावन कार्लचक्र में ,
बचपन ही सुवर्ण होता हमारा ,
जब ना होता त्रास हयात में ,
अनीति के अवैध लड़ते थे हम ,
समाज में प्रसृत सम्रगे निंदों को ,
मिटाने का प्रतिज्ञा लेते थे हम ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
जिस दिवा ना बाहर निर्गते थे हम
मानस में हताश छा जाती हमारी ,
कमरे की चतुर्थ भीतों में मेंड़ हम
बचपन में घुटन अनुभूत करते थे ,
जब बाहर निर्गते को हम
फलक – पयार एक कर देते थे ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
खिलौनों के मेल खेलना ,
मित्रों के मेल भ्रमण करना ,
मातृ के हस्तों से खाना खाना ,
जनक के स्कंधों पर बैठना ,
विद्यालयों में लुत्फ करना ,
बहुल उम्दा लगता था हमें ,
शर्म हया का दामन नहीं ,
स्वतंत्रता से दुराचारी करना ,
वह बचपन क्या खूब था हमारा।
✍️✍️✍️उत्सव कुमार आर्या