वह अल्हड़ नहीं
वह अल्हड़ नहीं है,
अब मासूम नहीं है।
किसी भी शोहरत से,
महरूम नहीं है।
उसकी जुदा कहानी है
अब बच्ची नहीं, सयानी है
उस पर चढ़ चुकी,
भरपूर जवानी है।
कभी ज़ीनत होती थी,
ऊंची मसनद वालों की,
बड़े दरबारों की।
मगर अब क्यों ?
गिरफ्त में है…
मक्कारों-दलालों की,
और नक्कालों की।
उसके सहारे कितनों ने,
नाम और दाम कमाया।
मगर… अफसोस!
उसकी रूह तक की,
हिफाज़त न कर सके।
उसके नाम पर…
उछल-कूद करके,
उसको ही भुना रहे हैं।
उसकी सूरत-सीरत को
किनारे लगा रहे हैं।
हालांकि…
तकाज़ा नहीं देती,
उसकी गैरत।
मजबूरी में,
वो बन रही है,
मजमों की ज़ीनत।
हमको मिलकर…
यह बीड़ा उठाना होगा,
उसको आज़ाद
कराना होगा।
उसकी अस्मत को,
बचाना होगा।
हम ज़रूर…
एहतराम के साथ,
तुझे गुनगुनाएंगे,
तेरा वक़ार बढ़ाएंगे,
हम संभालेंगे तुझे,
तू भी थोड़ा संभल,
ऐ मेरी प्यारी ग़ज़ल।