वही इब्तिदा वही इन्तिहा थी।
पेश है पूरी ग़ज़ल…
शहर के अदीबों की चाहत थी।
कहने को वो एक तवायफ थी।।1।।
बचता ना कोई तीर ए नज़र से।
वो जीती जागती कयामत थी।।2।।
हर दिल ही सुकून पाता उससे।
प्यासे सेहरा में जैसे राहत थी।।3।।
जैसे परवाने को शम्मा चाहिए।
यूं सबमें बसी बुरी आदत थी।।4।।
हुस्न ए शबाब का क्या कहना।
मजबूर हर रूह की हालत थी।।5।।
वही इब्तिदा वही इन्तिहा थी।
वो हर दिल की ही हाजत थी।।6।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ