वसुधैव कुटुंबकम
वसुधैव कुटुंबकम
काश कि कोई देश न होता, कोई भी जाति व धर्म न होता
सारी पृथ्वी होती एक राष्ट्र, कोई भी देश विशेष न होता।
अगर जो होता धर्म कोई, वह धर्म मात्र मानवता का होता
हिलमिल रहते भू पर जीव, सबका प्रकृति में हिस्सा होता।
मजहब सिर्फ इंसानियत होती, नाम धर्म के प्राण न जाते
न होती जाति, न रंगभेद, मनुष्य घृणा के पात्र न होते।
कर्म प्रधान होता यह विश्व, मानवश्रम, कर्म पूज्य सब होते
जलचर, नभचर, थलचर सारे, निज-निज की सीमा में रहते।
अतिक्रमित न कोई किसी को करता, नर नगर, गांव में रहते नदी, समुद्र ,वन कोई न छूता, होता जो भू पर सब खाते।
विद्यालय विज्ञान, भाषा के होते, कोई युद्ध-इतिहास न पढ़ता न होती सेना कहीं किसी की, करते सब अपनी खुद की रक्षा।
पासपोर्ट का काम न होता, मनवांछित कोई कहीं भी बसता
सुंदर ,सुखद सभ्यता होती, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ मंत्र सच होता।
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।