वसंत
छ ऋतुओं वाला मेरा देश
विविध वेश भूषा वाला देश
यौवन हर बीथि में दिखता
मौसम अमराई को भरता
त्रतुराज बसंत खेला करता ।
काली कोकिल कूँ कूँ करती
जब मन्द बयारें महका करती
बादल घिर घिर गर्जन करता
परिधान जब बोझिल लगता
मधुमास मेरे अगन खेलता ।
अमुवा की डालि पर आई बौर
हवा छेड़ छेड़ मचाती है शोर
गाँव की गोरी गाती है फाग
पिय को देख देह लगे आग
वसंत किलकारी नित भरता ।
नव चेतना नव उल्लास छाया
खुमार सुर्ख गुलाबी कपोल आया
शर्मीली सी हो गयी है निगाहें
मिलन की चाह में भर रही आहें
वसंत एकटक देखा करता ।
पर मैं विरहिणी कैसे अब जीऊँ
जब पास न होये मेरा कंत पीऊ
पलाश गुलाब संताप बढा रहे
पल पल याद में अश्रु ढुलकाये
वसंत सूना सूना लगा करता ।
प्रकृति रुपसि करती है श्रृंगार
नयी नवेली भी धारण करे हार
खेतों में हरी सरसों झूम रही
अन्नदाता की छाती फूल रही
वसंत झूम कर नाचा करता ।
वाणी पाणिनि को करे हम नमन
अज्ञानता का करे दमन शमन
बुद्धि विवेक का हो जन जन संचार
मन में विकसे नित नव सद विचार
वसंत ज्ञान नित नव भरता ।