वर्षों बाद तुम्हें देखा
—————————————————
वर्षों बाद तुम्हें देखा
आशंकित तमन्ना नगर देखने की थी।
किन्तु, तुम बेतरतीब थे आज भी
जंगल की तरह।
तुम्हारे बेतरतीब ज़ुल्फों से ही तो
हमें प्यार था।
छूने और सँवारने ही तो मैं उसे,
बेकरार था।
तुमने दुनियादारी संवार रखा था करुणा से।
पर,
तुम अभी भी प्रबुद्ध नजरों में
थी,अमंगल की तरह।
मंडियों में बिकते सब्जीयों की तरह बासी।
तुम सुबह नींद से जागती उबासी।
सूंघकर मैं क्या करता।
किस कोने में स्मृति के धरता!
काश! तुम युद्ध में कट जाती।
शहीद तो कहाती।
तुम्हारी चिता पर मेला लगाने
सारी दुनिया आई होती।
मेरे सामने
वायदे से मुकरा हुआ तुम्हारा सर।
मेरे रोम-रोम में भरे तेरे प्यार को
झुठला गयी होती।
क्यों नहीं है युद्ध में मरना-मारना
बलात्कार।
बलात्कार के बाद मर जाना ही क्यों है
बलात्कार।
घर से निकलने से पहले
रौशनी देख लेना चाहिये।
रौशनाई लिखने से पहले।
सौभाग्य सब का नहीं होता।
सारा उम्र ताकता रह,
मुट्ठी भर अनाज को भागता रह।
जो ताकते और भागते नहीं
वह ‘सात पीढ़ी’ वाला होगा,ढूंढो।
जिनके जीवन में स्याह है,हाथ उठाएँ।
नहीं,कोई सदावर्त-योजना नहीं है।
संकल्प लें। मुट्ठी बाँधें। नारे लगाएँ।
सत्याग्रह से सिर्फ आजादी मिलती है।
रोटी नहीं।
उम्मीद बची रहती है हिंसक मांग से।
इसे समझना छोटी नहीं।
करुणा में भी और क्रोध में भी।
हमारा ही दम घोंटा जाता है।
दरअसल,
यहाँ ‘आदमी’ छोटा हो जाता है।
जीवन में,
जरूरत की सूची छोटी होती है।
दुनियाँ में,
आवश्यकता की लंबी कतार।
ईश्वर ने तुम्हें जीवन दिया।
तुम दुनियाँ चाहते रहे।
और इसके लिए खुद पर
जुल्म ढाहते रहे।
—————————————