“प्रीति मधुशाला की”
ऐसी प्रीति लगी हाला की,
मधुशाला दिखा दिया,
नष्ट कर डाला जिस्म अपना,
अस्तित्व मिटा दिया।
जीने की लालसा ने,
पीना सीखा दिया,
कौन,किसको पीता है?
ये भी बता दिया।
स्थिर थे जो पग,
वो भी डगमगाने लगें,
चढ़ते ही नशा अपना ,
करतब दिखा दिया।
बीवी से भी ज्यादा,
मान है मधुशाला की,
घर से बेघर करा देती है,
प्रीति मधुशाला की।
सीने की आग बुझा देती है,
उतर कर प्रीतम का अपने,
डटे रहते हैं पीने वाले,
शान, सुबह-शाम मधुशाला की।।
राकेश चौरसिया