‘वर्षा ऋतु’
काली घटाएँ नभ में मडराती,
शोर मचाती उछलती टकराती,
तब बिजली सी कौंध जाती,
पूरवा सनसनाती चलती,
वृक्षों को झकझोरती तोड़ती।
धरती का खिल जाता तृण-तृण,
मेघ जब करते नन्ही बूँदों का वर्षण,
पपीहा गाता, मोर नाचता,
झिंगुर झंकारते,दादुर टर्राते,
प्रेमी मग्न हो मदमाते।
धरा खिलखिलती प्यास बुझाती, हरियाली चादर बिछाती,
अन्न उगाती,ताप शीतल कर जाती,
दुल्हन पीहर जाती , सखियों संग मिल खुश हो जाती, वर्षा सबको खुश कर जाती।
कोई है जो बादल देख नाचता नहीं, चिंतित हो जाता, असहाय, दिव्यांग,मजदूर जो दिनभर करते काम रात को करते थोड़ा आराम,
जिनकी झोपड़ियाँ टपकती हैं, जमीन पर बिछौना नहीं बिछेगा, रात उचककर बैठकर बिताएंगे, चूल्हा नहीं जलेगा , कच्ची, पक्की रोटी भी नसीब नहीं होगी उनको वर्षाऋतु का सावन मनभावन कैसे लगेगा?
-गोदाम्बरी नेगी