वर्षा ऋतु (मुक्तक)
वर्षा ऋतु (मुक्तक)
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१.
सावनी वातावरण में घूमने का मन बहुत है।
हो रही बारिश छमाछम भीगने का मन बहुत है।
ओढ़ कर काली घटाएं आ गई बरसात रिमझिम।
स्नेह में डूबा हृदय ले झूमने का मन बहुत है।
२.
खूब बरसे जा रहे हैं मेघ चारों और घिरकर।
धन्य होती बूंद जल की टपकती है जब धरा पर।
तीव्र गति से बह चली है चाह मिलने की नदी से।
बारिशों की ऋतु सुहानी लक्ष्य अंतिम है समंदर।
३.
कर्ण प्रिय मधुरिम बहुत हैं गूंजते बरसात के स्वर।
खूब बढ़ते जा रहे हैं पोखरों तालाब के स्तर।
मेंढकों की टरटराहत में मिले स्वर झिंगुरों के।
गा रही कोयल तराना नाचने को मोर तत्पर।
४.
प्रिय बिना बरसात का हर पल अखरता ही रहेगा।
साथ आएंगे तभी जादू बिखरता ही रहेगा।
देखते ही देखते वह मोह लेगा मन सभी के।
रूप सावन की घटा में तब निखरता ही रहेगा।
५.
छा गए बादल गगन में आ गई बरसात।
सोचते ही रह गए हम कह न पाए बात।
जुल्फ की सुन्दर घटाओं का अलौकिक रूप।
मोह छूटे तब कहीं वश में रहें जज्बात।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य।
मण्डी (हिमाचल प्रदेश)