वर्षागमन
वर्षागमन
//दिनेश एल० “जैहिंद”
गर्मी के दिन बीत जाते हैं,,
बारिश के दिन तब आते हैं।
प्यासी धरती प्यास बुझाती,,
चहुँ ओर हरियाली लहराती।।
उमड़-घुमड़ कर आते हैं,,
गरज-गरज कर चौकाते हैं।
शीतल बूँदों से नहलाते हैं,,
जग में बरसात कहलाते हैं।।
सन-सन हवा मचलती है,,
मर्र-मर्र पत्तियाँ डोलती हैं।
कलकल, छलछल, हरहर,,
मतवाली नदियाँ बहती हैं।।
दादुर, झींगुर, चातक बोले,,
बुलबुल, पपीहा, मोर डोले।
ठहर-ठहरके बिजली चमके,,
आसमान भी रह-रह दमके।।
खेतों में साजन दिन गँवाये,,
विरहिनी विरह में कुम्हलाये।
थका तन खाट में ढह जाये,,
मन के भेद मन में रह जाये।।
रिम-झिम बूँदें गिरती हैं,,
झम-झम बौछारें पड़ती हैं।
प्रीत को नव यौवना तरसे,,
झरझर नेत्रों से बरसा बरसे।।
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दिनेश एल० “जैहिंद”
जयथर, मशरक, छपरा