वर्तमान
डरता हूँ हाँ कभी डर जाता हूँ मैं ,
दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।
चकित होता हाँ चकित होता मैं ,
उभरते बढ़ती उम्र के हर चिन्ह से ।
सोचता फिर अगले ही पल मैं ,
परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,
लागू होता है यह मुझ पर भी ।
लड़ न सका कोई प्रकृति से ।
समेट लेती वापस धीरे धीरे ,
गर्भ में अपने अपनी गति से ।
उदय और अस्त दिन और रात ,
यह भी तो चलते इसी गति से ,
अस्त हो उदय होना मुझे भी ,
नियति की इस सतत गति से ।
प्रकृति भी तो चलती प्रकृति से ।
हटाकर सामने से मैं दर्पण अपने ,
चल पड़ता वर्तमान में ,
मैं अपनी गति से ।
….. विवेक दुबे”निश्चल”©…