वर्तमान परिदृश्य
ऐसा तबाही का मंजर दिख रहा है,
हर तरफ तपिश का समंदर दिख रहा है।
इंसान की इंसानियत खोती जा रही है,
हमारी तृष्णा चरम को छूती जा रही है।
हर भावनाएं तार-तार हो रही है,
हर रिश्ता यहां शर्मशार हो रहा है।
अपनों की स्नेह भी बेजान लग रही है,
स्वयं की परछाईं भी अनजान लग रही है।
।।रुचि दूबे।।