वयम् संयम
सुन टुकड़े-टुकड़े की भभकियां
अब नही सिहर जाता मैं !
देख बिखरने की साजिशें
अब नही बिखर जाता मैं !!
चन्द लोगों की खताओं पर
अब नही विफर जाता मैं !
जहां न होती इंसानियत
अब नही उधर जाता मैं !!
मैं,मेरा,श्रेष्ठ,सर्वश्रेष्ठ की बहस
तू-तू मैं-मैं,नही किधर जाता मैं !
वचन,प्रवचन-प्रपंच,तर्क-तकरीर
अब खुद ही सुधर जाता मैं !!
छल,छद्म और फेक-फरेबी में
यह दुनिया नकली पाता मैं !
बहुत आया था बहकावे में
अब झांसे में नही आता मैं !!
हूं अदना सा आम आदमी
आकाओं में नही चुना जाता मैं !
लड़ता हूं रोज जंग-ए-जिंदगी
रणबांकाओं में नही गिना जाता मैं !!
जाग रहा हूं, चेत रहा हूं
अब हां में हां नही मिलाता मैं !
यूं ही सांपनाथ, नागनाथ को
अब दूध नही पिलाता मैं !!
हो सतर्क,तर्क से फर्क कर
यूं ही मिथ्या नही फैलाता मैं !
भटकी भेड़ चाल चल के
लकीर का फकीर न बनता मैं !!
दब्बू स्पंज के टुकड़े जैसा
अब पुरजोर नही दबता मैं !
दबने पर अब स्प्रिंग जैसे
बिना दूर फेकें ना रुकता मैं !!
इस भागम- भाग में भी
पीछे स्वार्थ के नही भागता मैं !
लुटा दूं सब दूसरों के लिए
जरूरत से ज्यादा न मांगता मैं !!
~०~
मौलिक एवं स्वरचित: रचना संख्या-०६
जीवनसवारो,मई, २०२३.