‘ वफा – ए – मुहब्बत ‘
इतने नासमझ तो नही तुम
जो ऐसे अनजान बने बैठे हो
या जानबूझ कर मेरी मुहब्बत से
झूठ मूठ में नाराज़ हुये ऐठे हो ?
तुमको मेरी चाहत का अंदाज़ा नही
अपनी हिचकियों को क्या समझते हो
ये बार – बार पानी का गिलास उठा कर
मेरी चाहत को नज़र – अंदाज़ करते हो ?
तुमको मेरी वफा समझ नही आती
या समझना ही नही चाहते हो तुम
क्यों मेरी वफा – ए – मुहब्बत से
इस कदर बेचैन हुये बैठे हो तुम ?
ऐसा क्या है जो समझ नही आता
इतने सरल – संयोग को तुम
अपनी बेवजह की सोच से
बेहद क्लिष्ट – वियोग किए बैठे हो तुम ,
चलो माना की बदले में तुम मुझको
वफा – ए – मुहब्बत दे नही सकते हो
लेकिन मेरी मुहब्बत का तहे दिल से
इस्तक़बाल तो कर सकते हो तुम ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 04/02/2021 )