वचन मांग लो, मौन न ओढ़ो
कोप भवन की हे कैकेयी!
वचन माँग लो, मौन न ओढ़ो।
जीवन की इस समर भूमि में, रथ साधे हो मन का तुम ही।
और हृदय के अवध क्षेत्र में, हो सरयू की धारा तुम ही।
तुम बोलो तो स्वयं राम हो, आजीवन वनवास भोग लूँ।
तुम चाहो तो सौमित्रों सा, मैं स्वैच्छिक संन्यास ओढ़ लूँ।
मनुहारों की कोमल डोरी,
यूँ बनकर अंजान न तोड़ो।
कोप भवन की हे कैकेयी!
वचन माँग लो, मौन न ओढ़ो।
सौंप चुका हूँ तुमको प्रियतम मन की सारी राजधानियाँ।
एकछत्र है राज तुम्हारा मुझ पर जाने लोक रानियाँ।
अगर कहो तो तुम्हें इसी क्षण मैं अजेय सिंहासन दे दूँ।
हो कुलवधू दिवाकर की तुम, तुम्हें व्योम में आसन दे दूँ।
उन्मुख ओर तुम्हारे हैं जो,
प्रिय मेरे वो हाथ न छोड़ो।
कोप भवन की हे कैकेयी!
वचन माँग लो, मौन न ओढ़ो।
© शिवा अवस्थी