वक्त गिरवी सा पड़ा है जिंदगी ( नवगीत)
नवगीत-25
आधुनिकता
वक्त पाकर
देख दर्पण मुस्कुराती ।
वक़्त गिरवी
सा पड़ा है
जिंदगी आँसू बहाती ।
जंगलों का
काफ़िला अब
ख़ौफ़ से सहमा हुआ है
ले प्रगति की
नव कुल्हाड़ी
वो शहर दौड़ा हुआ है
स्वार्थ का
स्तर बढ़ा है
घट रही संवेदनाएँ
सिर्फ निजता
वश धरा पर
धूप आकर चिलचिलाती ।
फ़ैशनो ने
तीब्र ख़ंजर
धर्म पर भरसक चलाया
और धन की
लालसा में
प्रेम को धूलें चटाया
अब शहर में
सभ्यताएं
मुँह छिपाकर रो रहीं हैं
और गांवों में
प्रथाएं
बेसुरा कुछ गीत गाती
अनुकरण की
अधियों को
कौन कब तक रोक पाया
नव्यता के
अभ्युदय का
भानु फिर से तमतमाया
पत्तियों से
झर रहे है
दूर हो सम्बन्ध सारे
प्रेम की वह
बेलि पुष्पित
व्यस्तता में सूख जाती ।
रकमिश सुल्तानपुरी