वक़्त लगता है मेरी जाॅं इस जहां से जाते जाते
वक़्त लगता है मेरी जाॅं इस जहां से जाते जाते
वक़्त होता तो तेरी पेशानी पे इक बोसा हम लुटाते जाते
वक़्त की टहनी पे भूख लगे हैं और पत्ते प्यासे है
मेरे बस में गर होता तो रोटी पानी उगाते जाते
अब तो चारो ही तरफ़ फकत अंधेरा ही अंधेरा है
बस में होता तो हर इक घर में उम्मीद का दिया जलाते जाते
लाखों अलग सूरत इक गम का दुनियां इक मेला है
बस में मेरे होता तो सब को हम गुदगुदाते हॅंसाते जाते
~ सिद्धार्थ