वंसज
वो ‘पन्ना धाय’ भी रही नही, ना ‘सबरी’ का वो प्रेम रहा।
‘रैदास भक्त’ की भक्ति का, ना कोई नियति नेम रहा।।
‘निषाद राज’ की काया क्यो, कलुषित दुबिधा झेल रही।
ले नाम ‘भीम’ का सरेआम, उनके इज़्ज़त से खेल रही।।
‘दास कबीर’ की सिख सीखते, तो होती ऐ हालात नही।
खुद को उनका ‘वंसज’ बोलो, तुममे वैसी कोई बात नही।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०६/०४/२०१८ )