लौट आओ ना
खिडकी से दिखता
छायादार पेड अब भी वहीं खडा है
वह हरा भी है
और उसकी शाख पर
झूला भी पडा है
परन्तु हृदय व्यथित है
सुबह सवेरे गोरैया का कलरव नहीं
कान में गिलहरियों का
कट कट कट कट स्वर पडा है
हैरान हूँ सब कहाँ गुम हो गई ं
उनकी चहचहाहट वाली
मंगल ध्वनि कहीं खो गई
विधाता की इस अनमोल देन की
क्षति देख ,हृदय में शूल सा गडा है
खिडकी से दिखता
वो हरा पेड तो वहीं खडा है
लेकिन पत्ते उदास से लगते हैँ
फूल भी हताश से दिखते हैं
शाखों पर उनके बीच फुदकता
नगीना अब वहाँ नहीं जडा है
पेड से उतर उतर वो गौरैया
मेरे एक दम करीब तक आ जाती थी
पास बिखरे दाने चुनने में
जरा भी नहीं लजाती थी
अब सीलिंग के छेद में
बना घोंसला नितांत उजडा है
बिखर गये हैं तिनके
मन को गहरी उदासी ने जकडा है
लौट आओ प्यारी गौरैया
अपना आशियाँ वापस सजाओ ना
मेरा सूना आँगन आज भी
इसी आस में खुला पडा है
खिडकी के बाहर वाला पेड भी
तेरे इंतजार में बाहें पसारे खडा है
हमेशा के लिए तेरे खो जाने के डर से
हम सबके चेहरों का रंग उडा है
प्यारी गौरैया वापस लौट आओ ना
खिडकी से दिखता हरा भरा पेड
अब भी वहीं खडा है ।।।।।
अपर्णा थपलियाल “रानू”