लौट आओ तो सही
लौट आओ तो सही
लौट आओ तो सही..
ज़ख्म तो फिर से भर जाएंगे,
अब अपने चमन में लौट आओ तो सही।।
दुःख भरी दास्तान है ये सदियों पुरानी,
रिश्ते-नाते मे छलकती,दर्द की इक निशानी।
विकल व्यग्र पौरुष भुजबल था,
लिखते थे सब मिलकर शाश्वत कहानी।
उधेड़बुन में रहने से अब ना फायदा,
दुखड़ो को संजोने से भी ना फायदा।
अपनी अभिशप्त बगिया में फिर से,
आ जाओ तो सही।।
लौट आओ तो सही..
जादू- टोना दिखा के भरमाया कोई,
पर न अपना इरादा बताया कोई।
कुछ कमी थी यदि इस जमीं पे तभी,
वो कमी कौन पूरा करेगा कभी ।
जग को जीना सिखाया था हमनें यहाँ,
आंसूओं में भी हंसता था सारा जहाँ।
धर्म कुछ भी हो लेकिन, विरासत तो है,
इस विरासत को मिलकर बचाएं सभी।
लौट आओ तो सही..
व्यर्थ जीवन हुआ, जो दर्शन न मिला,
धर्म को मथने का सटीक माध्यम न मिला।
वेदांतोपनिषद को ठीक से जो परखा नहीं,
पंच ऋणों से हो मुक्ति ये समझा नहीं।
माना ये जीवन है, तक़दीर का आइना,
पर क्यों भूले हम, खुद पे यकीन करना।
माँ के आंसू की अहमियत समझोगे कभी
बापू के कंधे से ऊंचा तो कुछ भी नहीं।
लौट आओ तो सही..
सभ्यता के धरातल पर विकसित हुए,
संस्कृति के आँचल में हम पल्लवित हुए।
जब ये पूछेगी हमसे,आगे की पीढ़ियां,
कैसे अपने थे, जो अब पराये हुए।
वो पुछेंगे कैसे थे पूर्वज यहाँ।
कैसे झूठलाओगे तब निजधर्म की ये बयाँ,
वक़्त की नजाकत को समझ लो अभी ।
एक बार होश में फिर से आओ तो सही।।
लौट आओ तो सही..
रेत सी फिसलती है, ये उम्र भी,
पल गुजरता है इसमें धूप भी छाँव भी।
अपनी बगिया को सिर्फ अब सजाने तो हैं,
कल्पित स्वप्नों के श्रृंगार बचाने तो हैं।
संस्कारों की वसीयत भी पढ़ लेते कभी ,
अपनी हालत का एहसास फिर होता तभी।
धर्म का रक्षक बनेंगे,करो ये वायदा,
ये पंक्ति मेरे गुनगुनाओ तो सही।।
लौट आओ तो सही..
ज़ख्म तो फिर से भर जाएंगे,
अब अपने चमन में लौट आओ तो सही।
मौलिक एवं स्वरचित
© मनोज कुमार कर्ण ।
कटिहार ( बिहार )