लोहे का दरवाजा लगाता है
बड़ा मगरूर बैठा है कहीं आता न जाता है
किसी के इश्क में शायद कोई सपना सजाता है
कहूँ क्या हाल दीवाने का जाकर देखिए साहिब
बनाकर झोपड़ी लोहे का दरवाजा लगाता है
खिली,बिखरी हुई ओझल कली संसार से लेकिन
उसी डाली पे आकर रोज भँवरा गुनगुनाता है
हजारों चेहरे हैं लेकिन निकलता है वही अपना
हमारे जख्म को जो देखकर के मुस्कुराता है
मिलन का हो जुनूँ चाहत में तो सब तोड़कर रस्में
समंदर जा के दरिया में स्वयं ही डूब जाता है