लोककवि रामचरन गुप्त के लोकगीतों में आनुप्रासिक सौंदर्य +ज्ञानेन्द्र साज़
‘जर्जरकती’ मासिक के जनवरी-1997 अंक में प्रकाशित लोककवि स्व. रामचरन गुप्त की रचनाएं युगबोध की जीवन्त रचनाएं हैं। हर लोककवि की कविता में आमजन लोकभाषा में बोलता है। ये कविताएं तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों की रचनाओं से सदैव भिन्न रही हैं, लेकिन ऐसी रचनाओं से कहीं बेहतर हैं।
लोककवि लोकभाषा में प्रचलित गायन शैलियों का बेताज बादशाह होता है। रसिया, मल्हार, दोहा, होली, स्वांग, वीर और फिल्मी घुनों में आमजन की बात लोककवि ही कह सकता है। रामचरनजी भी इससे अछूते नहीं रहे।
श्री गुप्त की रचनाओं के कुछ दृष्टव्य पहलू इस प्रकार हैं- एक निर्धन अपने बच्चे को पढ़ा न सकने की पीड़ा को यूं व्यक्त करता है-
ऐरे! एक चवन्नी हू जब नायें अपने पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूँ।
लोक कवि का यह आव्हान देखिए-
जननी! जनियो तौ जनियो एैसौ पूत, ऐ दानी हो या सूरमा।
मल्हार की गायकी के माध्यम से पूर्व प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु को देश की पीड़ा के रूप में कवि स्वीकारता है-
‘‘सावन सूनौ नेहरू बिन है गयौ जी।’’
देश-प्रेम, गुप्तजी का प्रिय विषय है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों की नीचता की सही की सही पकड़ उनकी कविता में है-
चाउ-एन-लाई बड़ौ कमीनौ भैया कैसी सपरी।
अथवा
सीमा से तू बाहर हैजा ओ चीनी मक्कार
नहीं तेरी भारत डारैगो मींग निकार।
या
ओ भुट्टो बदकार रे, गलै न तेरी दार रे।
आनुप्रासिक सौंदर्य भी रचनाओं में भरा पड़ा है जो अनेक प्रकार से परिलक्षित होता है-
भूषण भरि भण्डार भक्तभयभंजन भरने भात चले।
अथवा
दारुण दुःख दुःसहिता दुर्दिन दलन दयालु द्रवित भए।
किसी भी बोली के आम प्रचलित शब्दों का प्रयोग करके लोककवि उन शब्दों को प्रसिद्धि दिलाने में बड़े सहायक का काम करता है यथा रामचरनजी द्वारा प्रयोग किए गए कुछ शब्द-‘मींग, दुल्लर, कण्डी, पनियाढार, गर्रावै, पपइया तथा पटका-पटकी’ आदि।
आज की यह मांग है कि ब्रजक्षेत्र से लुप्त होती इन संगीतमय विधाओं को जागरुक रखने के लिए लोककवि रामचरन गुप्त के काव्य पर विशेष चर्चाएं आयोजित करायी जाएं ताकि मूल्यांकन के साथ-साथ विधाएं भी बनी रह सकें।