लैंगिक समानता
लैंगिक समानता का यह नारा इस दशक का आधार है,
हमारी आधुनिकता को दर्शाने वाला सबसे बड़ा प्रचार है,
ढिंढोरा पीटते पूरे जहां में दोनों की बराबरी का जो हम,
उस सत्य का संयुक्त राष्ट्र ने ही किया हर बार पर्दाफाश है,
अगर वाकई तुम्हारी नज़रों में सब बराबरी के हकदार हैं,
तो बताओ रात में काम करने पर क्यूं तुम्हारी मनाही बरकरार है,
अगर वाकई आधुनिकता का यह दौर तुम्हारा है,
तो बताओ क्यूं हर छोटी बात पर हर कोई करता हमें शर्मशार है,
वाकई बदल गए सब यहां और नई सोच को अपनाया है,
तो बताओ क्यूं आज भी इस समाज को पितृसत्तात्मक बतलाया है,
पूजा कर देवी की जो वरदान कुल गौरव का मांगते हो,
क्या कभी कुल बढ़ाने वाली को उस देवी का दर्जा देते हो,
समाज के कुछ हिस्सों में भारी बदलाव जरूर आया है,
जहां बेटी के जन्म पर भी सभी ने खुशियों का माहौल सजाया है,
पर कैसे भूले अख़बार में छपती भ्रूण हत्या,दहेज और रेप की उन वारदातों को,
जहां हर खोखले आदर्श ने इंसानियत का पर्दा गिराया है,
अजीब नज़ारा है देश का अपने जहां पूजता हर घर देवी को,
वही पर बेटियों को कई बार कुल का धब्बा बता नीचा दिखाया है,
बांटा गया काम दोनों के बीच और गुरूर की रेखा खींची गई,
तभी तो हर छोटे काम में मर्द औरत की जात देखी गई,
कमाना है मर्द का काम तो औरत सिर्फ घर संभालेगी,
अगर लाघेंगी घर की दहलीज वो तो समाज के ताने सुनेगी,
अगर मर्द करेगा घर के काम तो समाज में बेकार कहलाएगा,
बराबरी का हक दे औरत को बेवकूफ इनकी नज़रों में बन जाएगा,
दोहरी सोच इस समाज की समानता कभी न ला पाएगी,
चाहे छु ले औरत कितनी ही ऊंचाई पर समाज की नज़रों में वो घर तक सीमित रह जाएगी।