लेखनी
लेखनी
जाने क्यूँ काफी दिनों से
चुप सी है
बात कुछ तो है
लेखनी खामोश तो होती नही
आदत सी है उसकी
बस बोलने की
कोई सुने,ना सुने
कोई फर्क नहीं
घुटन,चीख,विलाप
आह्लाद तो प्रगट होंगे ही
चाहे रौंदी जाएँ भावनाएँ
कुचली जाएँ कल्पनाएँ
उजाड़ा जाए हमारा आकाश
बलत्कृत हो हमारी धरती
लेखनी चलती रही है
समाज चलने दे
लेखनी को
रोड़े ना अटकाए
लेखनी चली तो समाज चला
लेखनी रुकी,विकास रुका
थम गया देश,थम गयी शक्ति
रुक गईं धड़कनें
रुकी लेखनी तो।
लेखनी का चोटिल होना
कोई आश्चर्य नहीं
नित निरंतर घायल
होती रही लेखनी ने
संवेदनशीलता की पराकाष्ठा
को छूते हुए
जगाया है मुर्दों को
प्रकृति के कोप को
शांत किया है
प्रेम से दर्द को
स्पर्श किया है
सब कुछ सहा है लेखनी ने
हँसते-मुस्कुराते
हाँ, लेखनी ने एक बार
आत्ममंथन की बात कही थी
कहीं मंथन,आत्ममंथन का वही दौर
तो नहीं चल रहा,
बात कुछ तो है
लेखनी चुप सी क्यूँ है
एक अरसे से।
—अनिल मिश्र