“लेखक की मानसिकता “
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
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हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि आज हम अपने विचारों को सोशल मीडिया के पटल पर बिखेरते हैं ! अपनी प्रतिक्रियों को स्वतंत्रता पूर्वक सम्पूर्ण विश्व के समक्ष रखते हैं ! सारे विश्व के लोग इसे पढते ही हैं ! यह सत्य है कि हम पहले भी लिखा करते थे परन्तु वे किसी अभ्यास पुस्तिका के पन्नों के कालकोठारी में सिसकियाँ भरती हुई दम तोड़ने लगतीं थीं ! कोई भाग्यशाली होते थे जिनकी रचनाएँ यदाकदा प्रकाशित हो जाया करती थीं ! और उन रचनाओं के प्रभाव से समाज में क्रांति के स्वर सुनायी देने लगती थी ! वौद्धिक जागरणों से समाज का नवीनीकरण होने लगता था ! आजकल यह बातें सीमित परिधियों के दायरे से हटकर है ! अब हमें इस युग में इनफार्मेशन और टेक्नोलॉजी का एक नायाव् तौफा मिल गया है ! हम सम्पूर्ण विश्व से जुड़ गए हैं ! लोगों की सारी प्रतिक्रियाओं और उनके विचार पलक झपकते ही सारा विश्व जान जाता है ! हमारे लेखनी में शालीनता,मृदुलता और शिष्टाचार का समावेश होना चाहिए ! हमें जब अपना तर्क और विचार नहीं सुझने लगता हैं तो हम अपशब्दों के अस्त्रों का प्रयोग करने लगते हैं !,,,,, क्या हम अपने आक्रोशों को सौम्यता से अलंकृत नहीं कर सकते ?……यदि हम ऐसा नहीं करते तो हमारी लेखनी और हमारा व्यक्तित्व धूमिल पड़ जायेगा …और शायद ही हमारी लेखनी पर कोई ध्यान देगा !
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
दुमका