लुटाया भी जी आदमी आदमी पर
क़शिश तो है इसमें है यह सिरफिरी, पर
लगी आज तुह्मत मेरी दोस्ती पर
ये मंज़र तस्सवुर में लाकर तो देखो
के हो चाँद तो, गुम सी हो चाँदनी, पर
लिया गर है जी आदमी आदमी का
लुटाया भी जी आदमी आदमी पर
समझ में न आएँ गो अश्आर मेरे
तुझे तो यक़ीं हो के हैं क़ीमती, पर
ये क्या है के कहता है नफ़्रत है तुझसे,
मज़ा भी है आता तेरी बेतुकी पर
हर इक बज़्म में लोग अश्आर मुझसे
ही पढ़वा रहे आज तक आख़िरी पर
कहीं सोचकर यह के ग़ाफ़िल लिखा क्या
पटक दे न सर तू मेरी इस लिखी पर
-‘ग़ाफ़िल’