“लिखने की चाहत”
लिखने की चाहत…..
नवजीवन की हिलती – डुलती
मयस्क को
भेदकर शब्द बाण से
निकल जाऊं दूर कहीं
नभ में बैठकर
चांद की रोशनी लिए
लिखती दास्तान अकेलेपन का,
कभी धरा की गोद में
बैठें उन पौधों की
लघु व्याख्यान करती
या लिखती बेबसी
पिंजरे में बंद उस पंछी की,
बस कोशिश थी लिखने की
बेपनाह चाहत भी थी
ज़िन्दगी के पन्नों में
संलग्न होने की
तड़प रही मेरी यह
और चाहत भी थी
” लिखने की “।