**लिखता हूं मैं रोज कविता **
लिखता हूं मैं रोज कविता
बिन इसके मैं कहां हूं जीता
आखर जोड़ शब्द बनाता
यही है मेरी बहती सरिता
लिखता हूं मैं रोज कविता
यहां-वहां में जहां भी जाता
जोड़कर सबको मैं तो लाता
कर्म यही है धर्म भी मेरा
बना ली मैंने उसको गीता
लिखता हूं मैं रोज कविता
देखूं जब जब जग का मंजर
जागे चेतना मन के अंदर
दर्पण बन देखा करता
अपना लेखा उसमें भरता
आचार विचार मेरी सहिता
लिखता हूं मैं रोज कविता
अनुनय जब तक धड़कन धड़के
जग में रहेगा मेरा तन
तुझको अर्पण सारा समर्पण
संगिनी सुनो सुनो हे मेरी कविता
**लिखता हूं मैं रोज कविता **