लालसा
जन्म हुआ जब तेरा मानव
लालसा तू न जानता था।
रो – रोकर तू एक ही स्वर में,
मां से दूध मांगता था।।
फिर धीरे – धीरे आगे बढ़कर,
गिरता – पड़ता रहता था।
पढ़कर – लिखकर खेल कूदकर,
हंसके बचपन जीता था।।
अब फिर क्यों तू जवान होकर,
पैसा – पैसा करता है।
असत्य लूट खसौटी से तू,
बिल्कुल भी नहीं डरता है।।
जीवन में इक दिन मानव ऐसा,
घोर अंधेरा छायेगा ।
जब तेरा तन – मन सोकर के ,
किसी और के कंधे जायेगा।।
फिर क्यों जीवन में मानव तू,
लालच में भटका रहता है।
इस दुनिया में निश्चिंत भाव से,
जीवन क्यों नहीं जीता है।।
दुर्गेश भट्ट