लालच का फल
लालच का फल
पुराने जमाने की बात है। जामनगर में कपड़े का एक व्यापारी रहता था। नाम था उसका- फोकटमल। वैसे उसका असली नाम सेठ किरोड़ीमल था, परंतु हर समय मुफ्त का माल ढूँढते रहने के कारण उसका नाम सेठ फोकटमल पड़ गया। यथा नाम तथा गुण। वह हमेशा निन्यानबे के फेर में पड़ा रहता था। उस पर हरदम एक ही धुन सवार रहती थी कि किस तरह अधिक से अधिक धन कमाया जा सके।
वह कंजूस भी इतना अधिक था कि स्वयं भी बीमार पड़ता तो दवा-दारू पर खर्च नहीं करता। वह खाना घर में खाता, तो पानी बाहर पीता। पानी की बचत के लिए वह नहाता भी बहुत कम था। उसके घर में शायद ही कभी दो सब्जी बनती हो। सिर्फ त्यौहार एवं विशिष्ट अवसरों पर ही उसके घर में दाल बनता। घर में नमक खत्म हो जाये, तो कई दिनों तक बिना नमक के ही काम चलाना पड़ता।
कपड़े के नाम पर वह धोती के साथ एक बनियान पहनता था। कभी कहीं जाना होता तो अपने विवाह के समय सिलवाया गया कुर्ता कंधे पर डालकर चला जाता ताकि लोग यह न समझें कि उसके पास कुर्ता नहीं है। वैसे उन्होंने उस कुुर्ते को शादी के बाद कभी पहना ही नहीं। उनके कपड़े का रंग मटमैला ही रहता क्योंकि वे साबुन के प्रयोग से सर्वथा वंचित जो थे।
सेठजी के बीबी-बच्चे उनसे परेशान थे क्योंकि न तो वे स्वयं अच्छा खाते-पीते और न उन्हें खाने-पीने देते। चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए, यही सेठजी के आदर्श थे।
एक समय की बात है। वे कपड़ा बेचने श्यामनगर बाजार जा रहे थे। रास्ते में लम्बा-चौड़ा जंगल पड़ता था। फोकटमल अभी जंगल में घुसा ही था कि सामने से डाकुओं का दल आ धमका। डर के मारे उसके होश उड़ गए। डाकुओं ने फोकटमल के सारे पैसे तथा कपड़े लूट लिए और उसे खूब पीटने के बाद एक पेड़ से बाँधकर भाग गए।
कुछ देर बाद वह होश में आया। लूट जाने का दुख तो था ही, वहाँ बंधन में पडे़-पड़े भूखे-प्यासे मरने तथा जंगली जानवरों का आहार बन जाने की भी आशंका थी। वे जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगे।
उधर से एक साधु महाराज कहीं जा रहे थे। फोकटमल की आवाज सुनकर वे उसके पास आए। उसे बंधनमुक्त करने के बाद पूछे- ‘‘वत्स, तुम्हारी दशा कैसे हुई।’’
राते बिलखते फोकटमल ने सारी राम कहानी साधु महाराज को कह सुनाई। साधु महाराज ने धीरज बंधाते हुए कहा- ‘‘चिंता मत करो ! प्रभु सब कुछ ठीक कर देंगे।’’
‘‘क्या खाक ठीक होगा महाराज, मैं तो किसी को मुँह दिखाने के भी काबिल नहीं रहा। कल का सेठ किरोड़ीमल आज सड़क पर आ गया।’’ सेठ ने कहा।
साधु महाराज को सेठ पर दया आ गई। उन्होंने पूछा- ‘‘कितने रुपयों के कपड़े थे।’’
सेठ ने कहा- ‘‘लगभग सत्रह सौ रुपये के थे महाराज।’’
साधु महाराज ने अपने कमण्डल से एक-एक करके सौ-सौ रुपये के सत्रह नोट निकाले और बोले- ‘‘ये रखो तुम्हारे सत्रह सौ रुपये।’’
सेठ फोकटमल की आँखेें खुली की खुली रह गईं। उसे लालच के भूत ने धमकाया। वह संभलकर बोला- ‘‘महाराज, मैंने सत्रह सौ नहीं, सत्रह हजार रुपये बताये थे।’’
‘‘कोई बात नहीं, ये लो सत्रह हजार रूपये।’’ कहते हुए साधु महाराज ने एक-एक करके बहुत से सौ-सौ रूपये के नोट निकालकर दे दिए। पर फोकटमल के लालच की भी सीमा न थी। बोला- ‘‘महाराज, मैंने सत्रह हजार नहीं, सत्तर हजार रुपये कहा था।’’
फोकटमल के लालच को देखकर साधु महाराज थोड़ा परेशान जरूर हुए, फिर भी मन ही मन कुछ निर्णय लेकर कहा- ‘‘ठीक है, ये लो सत्तर हजार रूपए।’’
फोकटमल अब सत्तर हजार रूपए लेकर घर लौटने लगा। रास्ते में उसने सोचा यदि साधु महाराज का कमंडल ही उसे मिल जाए तो कुछ भी किए बगैर वह रातों-रात अरबपति बन जाए। वह तेजी से जंगल की ओर लौटने लगा। कुछ ही दूरी पर उसे साधु महाराज भी मिल गए। वह बडे़ प्रेम से बोला- ‘‘महाराज ये सत्तर हजार रुपए आप अपने पास रख लीजिए और कृपा कर अपना कमंडल मुझे दे दीजिए।
‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा। ये लो।’’ साधु महाराज ने कहा और उसे अपना कमण्डल दे दिया।
कमण्डल पाकर फोकटमल की खुशी का ठिकाना न रहा। वह साधु महाराज को धन्यवाद देकर घर की ओर प्रस्थान किया। घर पहुँचकर वह जैसे ही कमण्डल में हाथ डालकर बाहर निकाला तो कुछ भी नहीं निकला। तीन-चार बार ऐसा करने पर जब कुछ भी न मिला तो उसने अपना सिर पीट लिया।
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छ.ग.