लालकोट से डंका !
?
•••| लालकोट से डंका |•••
आर्यावर्त न रहा न जम्बूद्वीप शेष है
जो बच रहा है भारत उस पर भी क्लेश है
लुटेरे कहाएं संत जहाँ दानव महान हैं
जो धर्महीन हो गया वो मेरा देश है
आज फिर बजाएं डंका लालकोट से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . .
दासों की मंडली का बड़का यह दास है
मालिक की नज़र में रुतबा इसका ख़ास है
उसी के गीत गा रहा जग को रहा बता
कोई कुछ पुकारे नाम मेरा चरणदास है
भाग्य बिगड़ा बिगड़े कर्मों की खोट से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . .
आने का दर खुला यहाँ से जाने का बंद है
इमारत है शानदार दरवाज़ा बुलंद है
जीने का ढंग बदलो अगर जीने का शौक हो
मेहमान की गरज में वोटों का फंद है
कुर्सियों का खेल दिखता धर्मशाला की ओट से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . .
जो न कर सके लुटेरे उस काली रात में
अगड़े – पिछड़ों में बंट गए उगती प्रभात में
आँखों का रंग और लफ़्ज़ों का और है
रामज़ादे – आरामज़ादे सब एक साथ में
गालों का रंग लाल हुआ चाँटों की चोट से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . .
टुकड़ों में कटा पंचनद फिर भी उबल रहा
अंग भंग हुआ बंग अभी भी है जल रहा
न द्रष्टा न विज्ञ न करुणा की बूंद है
कुविचार का हथौड़ा दक्षिण मसल रहा
रक्तपिपासु ब्रह्मपुत्र में दिखते हैं पोत – से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . .
नालंदा से मिले तक्षशिला सिंहलद्वीप जयकार हो
सागरमाथा के उस पार भी सद्विचार हो
हरीतिमा धरती पे हो मन केसर में हों रंगे
झूठ और पाखंड न किसी का यार हो
युग पलट जाए आपस की जोट से
पिट गया खिलाड़ी ग़द्दारी की गोट से . . . !
वेदप्रकाश लाम्बा ९४६६०-१७३१२ — ७०२७२-१७३१२