लाज-लेहाज
#लाज_लेहाज
आब ओ अन्हरिया राइत कहाँ छै,
भूत देखि लोक पड़ाइत कहाँ छै।
जिनगी सभक सुखी छै मुदा,
आब ओ ठहक्का सुनाइत कहाँ छै।।
आब ओ पूसक राइत कहाँ छै,
घूर तर लोक बतियाएत कहाँ छै।
सुख सुविधा तँ बढ़ले जाइ छै,
मुँह पर मुश्की खेलाइत कहाँ छै।।
आब ओ अल्हुआ जनेर कहाँ छै,
मरुआ रोटि मरचाई कहाँ छै।
नीक-निकुत सभक घर बनै छै,
मुदा केउ निरोग बुझाइत कहाँ छै।।
गाँती सँ जाड़ पराइत कहाँ छै,
तापैत रौद थड़थड़ाइत कहाँ छै।
कपड़ा लत्ताक दिक्कत नहि छै,
मुदा वस्त्र ककरो सोहाइत कहाँ छै।।
दुख छोइड़ अड़जल सुख सभटा,
हौएल सभके संतोख कहाँ छै।
पढ़ल लिखल नवका पीढ़ी मे,
लाज-लेहाज बुझाइत कहाँ छै।।
नोट :- अहि ठंडमे धधकैत हमर इ कविता केहन लागल से एक बेर अवश्य कहब।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
अनिल झा
खड़का-बसंत
दरभंगा, बिहार
M-9955644005
28/12/2022