“लाचार मैं या गुब्बारे वाला”
चढ़ाई वो रामबाजार की
था लगा चढ़ने मैं भी
गुब्बारे वाला था एक देखा
इंच तीन हो जितनी रेखा
गुब्बारा बढ़ा था लाया उसने
जो देखा न था पहले किसी ने
भीड़ जमकर लगी थी वंहा
बैठा था गुब्बारे वाला जंहा
देखकर गुब्बारे का आकार
लेने को मै भी था तैयार
आती जब तक मेरी बारी
सोच रहा था उसकी लाचारी
हो जाता होगा गुज़ारा बेचकर
खा पाता होगा कुटुम्भ पेटभर
आई जैसे ही मेरी बारी
पूछ ली पहले उसकी लाचारी
भाई? बन जाता है इससे कुछ
मानते तुम जिसे सब कुछ
जो जवाब था उसका आया
अंधकार सा था आगे छाया
लाता हूँ घर से हजार
भर देता सारा बाजार
कोशिश इतनी ही करता हूं
थैला खाली ही करता हूं
आठ से आठ बजाता हूं
दो के दस ही कमाता हूं
सुनकर था मै लगा सोचने
पाँच हजार आता दिन मे
कर रहा था मै जो ख्याल
बता रहा हूँ अपना हाल
करता मै किस बात की अक्कड़
मुझसे तो बेहतर यह अनपड़
शुद्ध लाभ यह यदि कमाये
लागत का आधा कंही न जाये
मास का कई बनता हजार
बहुत खूब है यह व्यापार
लगा था मुझे वो लाचार
था उसका ही यह संसार।।
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………संजय कुमार “संजू”