लाखों सवाल करता वो मौन।
उम्र का अंतिम पड़ाव, कुछ घरों को, मौन किलकारियां सुना जाता है।
जब बेबस सी उन आँखों से, ख्वाब हीं नहीं, यादें भी वक्त चुरा ले जाता है।
पग ठहरते नहीं जमीं पर, यूँ बुढ़ापा सहारों की आस लगाता है।
जाने क्यों एक बार पुनः वृद्ध, शिशु सदृश्य हो जाता है।
कभी जो स्वयं ढाल बन, हमारे हर डर को डराता है।
आज वो बादल की गर्जन से, स्वयं में हीं सहम जाता है।
कभी जो नंगे हाथों से, हमारी राहों के कांटे तक चुन जाता है।
आज उन्ही कांपते हाथों से, एक निवाले को भी तरस जाता है।
कभी अनवरत बातों से, जो महफ़िल की जान कहलाता है।
आज उनके थरथराते शब्दों को, कोई हृदय समझ नहीं पाता है।
अश्रु गिरते नहीं उन आँखों से, फिर भी देख ये दिल फट जाता है।
कैसे विस्मृति की बाहों में पड़ा, वो स्वयं में हीं मुस्काता है।
उन आँखों का मौन ना जाने क्यों, लाखों सवाल कर जाता है।
उम्मीद से बढ़ते हाथों को, तू थाम ले, क्यों कतराता है।