लाखों दीयों की रौशनी फैली है।
लाखों दीयों की रौशनी फैली है,
पर अस्तित्व तेरा दिखता नहीं।
खुशियों भरी दिवाली में भी,
अश्कों का अँधेरा छंटता नहीं।
वनवास राम ने भी काट लिया,
पर ये वियोग कैसा है जो कटता नहीं।
राहें बेचैन हैं तेरे क़दमों को,
पर तेरी आहटों का जो मरहम है वो लगता नहीं।
शहर उल्लास का प्रतीक बना है,
पर ये जंगल पीड़ा का मुझसे छुटता नहीं।
कोशिशें मेरी भी हैं कि आतिशबाजियां देखूं ,
पर एक चिता का मंजर है जो आँखों से मिटता नहीं।
रंगबिरंगी सजावटें हो तो रहीं हैं,
पर एक कोरा आवरण है जो अब ढहता नहीं।
यूँ तो मिठाईयों की थालें भरी हैं,
पर अंश मिठास का मुझमें अब बसता नहीं।
ये त्योहार मिलन का जीवंत खड़ा है,
जो तन्हाईयों को मेरी ठगता नहीं।
ज़हन तरस रहा है तेरी आवाजों को,
पर आभासों में भी तू, अब कुछ कहता नहीं।