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6 Aug 2018 · 1 min read

लाखों का सावन

रहा न अब लाखों का सावन
नहीं सुकोमल पहले सा मन
बदल गईं हैं रीत पुरानी
सूना है बाबुल का आँगन

वो पेड़ों पर झूले पड़ना
कजरी गाना पेंगे भरना
सखियों के सँग हँसी ठिठोली
सब कुछ कितना था मनभावन
रहा न अब लाखों का सावन

भैया के सँग मैके आना
मस्ती करना रौब जमाना
राखी का त्योहार दिलों में
ले आता था भोला बचपन
रहा न अब लाखों का सावन

होती थी साजन से दूरी
भाती थी पर वो मजबूरी
कविता में पाती लिख लिख कर
शरमा जाते थे मन ही मन
रहा न अब लाखों का सावन

आज जमाना बदल गया है
शुरू हुआ अब चलन नया है
कैसा हक पाया है हमने
चला गया अपना भोलापन
रहा न अब लाखों का सावन

06-08-2018
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद

Language: Hindi
Tag: गीत
443 Views
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