लाकडाउन
? .. दुनियाँ की पूरी अर्थ व्यवस्था जिन मजदूरों पर निर्भर करती है पर लाकडाउन के साथ मजदूरों के साथ स्व वतन वापसी को ले जो घटनाएं घटीं वे बहुत हृदयविदारक थी। इन मजदूरों में आदमी औरत बच्चे यहां तक कि गर्भवती महिलाएं भी थी । संसाधन समाप्त होने के बाद सरकार का गैर जिम्मेदार रवैया , रोजमर्रा की जरुरतों से दो – चार होते हुए अन्त में उनको अपना वतन याद आने लगा । जिसको जैसे बना वापसी के लिए रवाना हो गया ।
बोझे को लादे हूए परिवार अपने गन्तव्य की ओर पैदल ही बढ़े जा रहे थे कि आधी राह पुलिस इन्सपेक्टर द्वारा वापस भेज दिये गये । अगर सरकार यह सोचती है कि पैदल कैसे जायेगे तो साधन की व्यवस्था कराई जानी चाहिए और यदि यह सोचती है कि वे अपने साथ कोरोना भी ले जाएगे इसलिए वापस लौटाया गया तो सरकार का दायित्व था कि मजदूरों के रहने का उचित इन्तजाम होना चाहिए । यही वजह रही कि जैसे भी हुआ वे वापसी के लिए उद्धत हो गये ।
रिक्शे पर पूरे परिवार को खींचते हुए ग्यारह वर्ष का बालक आँखे नम हो जाती है और एक प्रश्न व्यवस्था से कि भारत जैसे दैश मैं जहाँ भरत सिंह के दाँत गिनता है उस भूमि पर देश के भविष्य की यह दुर्दशा शायद व्यवस्था का ही दोष है । हम कहते है ‘” यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते ” ऊस भूमि पर महिला दो बच्चों के साथ ,जिसमें एक कन्धे पर दूसरा गोद में सामान को खींचे मीलों दूर चली जा रही है बहुत शोचनीय स्थिति है आधार स्तम्भ कहलाने वाले मजदूरों की यह दुर्दशा । काफी तो काल का ग्रास बन गये ।
कोरोना को सामान्यतः सभी ने भोगा पर मजदूरों ने तो कुछ ज्यादा ही ।
गर्भवती चलते – चलते राह पर ही बालक को जन्म दे देतीं है दो घण्टे बाद उठ कर फिर चल देती है किसका दोष है बच्चे का या माँ का । मैं तो व्यवस्था को ही मानती हूँ । रहाँ पर व्यवस्था की पोल खुल जाती है । माना नारी देवी स्वरुपा है पर इस रूप को रहाँ देखे जाने की आवश्यकता नहीं । नौ माह तक कोख में पोषण करने के बाद वो खुद ही निर्बल हो जाती है ऐसे में ऊसके दैवीय रूप को परखना उचित नहीं ।