ललक लालसा और लालच
“ललक, लालसा और लालच”
लालच भी कभी भोला हुआ करता था
जब चटोरे बालक की लार टपकती थी
ललक का प्रकट रूप लालसा होती थी
बबुआ के बढ़े हाथों पर माँ गरजती थी
लालच मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है
ये न होता तो बचपन अधूरा सा हो जाता
लालच खुद अपने आप में होता नहीं बुरा
हां बुरी नीयत के संग ये बुरा सा हो जाता
लालच दिल का है, या दिमाग का, फरक है
लालची दिमाग ललक को हवस बना देता है
ललक, लालसा, लालच रखिए, मगर दिल से
इस का बालपन दुनिया को चमन बना देता है
~ नितिन जोधपुरी “छीण”