लब-ए-साहिल हमारी आस में आँखें टिकाए है
लब-ए-साहिल हमारी आस में आँखें टिकाए है
समंदर भी हमारी याद में आँसू बहाए है
जुदाई में भले ही मैं न रोया एक भी आँसू
ग़म-ए-फ़ुर्क़त मुझे भी है मेरा ये दिल बताए है
ज़माना सोचता है आसमाँ से गिर रही बिजली
मुझे मालूम है ख़ातिर मेरे वो तिलमिलाए है
अकेले बेंच पे बैठा हुआ देखा मुझे जब से
बगीचा ठीक उस पल से बड़ा सा मुँह बनाए है
मेरा दिल रेलवे स्टेशन पे थमती ट्रेन जैसा है
जिसे ये ज़िंदगी अपना हरा झंडा दिखाए है
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’