लपेटे—संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली
(1.)
कफ़न से मुँह लपेटे मेरी हसरत
दिल-ए-वीराँ के कोने में पड़ी है
—बयान मेरठी
(2.)
उस पे कल रोटियाँ लपेटे सब
कुछ भी अख़बार से नहीं होता
—महावीर उत्तरांचली
(3.)
‘सरवत’ हर एक रुत में लपेटे रही जिसे
वो ना-मुराद आस की चादर भी फट गई
—नूर जहाँ सरवत
(4.)
हाथ में मिशअल लिए हर सम्त पहरे पर रहो
रात की चादर लपेटे हमला-आवर आएगा
—ओवेस अहमद दौराँ
(5.)
ख़ुद को लपेटे रहना ज़माना ख़राब है
ज़ाहिर किया तो लूट लिए जाओगे मियाँ
—इंतिख़ाब सय्यद
(6.)
ख़्वाब लपेटे सोते रहना ठीक नहीं
फ़ुर्सत हो तो शब-बेदारी किया करो
—राहत इंदौरी
(7.)
कफ़न का गोशा-ए-दामन तो उलटो
ये हसरत मुँह लपेटे क्यूँ पड़ी है
—रियाज़ ख़ैराबादी
(8.)
पड़े रहते हो पहरों ही मुँह लपेटे
वो जल्सा कहाँ है वो सोहबत कहाँ है
—निज़ाम रामपुरी
(9.)
मसर्रतों से कहीं दिल-रुबा सितम निकला
लपेटे शाल बहुत ख़ुशनुमा उदासी की
—जाफ़र साहनी
(10.)
सोते हों चाँदनी में वो मुँह लपेटे और हम
शबनम का वो दुपट्टा पट्ठे उलट रहे हों
—इंशा अल्लाह ख़ान
(11.)
यूँ तो रवाँ हैं मेरे तआक़ुब में मंज़िलें
लेकिन मैं ठोकरों को लपेटे हूँ पाँव में
—ख़ातिर ग़ज़नवी
(12.)
लपेटे नूर की चादर में दर्द के साए
भटक रहा है कोई शब-नवर्द शाख़ों पर
—जमुना प्रसाद राही
(13.)
हसीन होते हैं दिन ख़्वाब से लपेटे हुए
गुलाब करती हैं रातें महक मोहब्बत की
—नाज़ बट
(14.)
फ़ुर्क़त में मुँह लपेटे मैं इस तरह पड़ा हूँ
जिस तरह कोई मुर्दा लिपटा हुआ कफ़न में
—अमीर मीनाई
(15.)
खुली खिड़की पे इक बूढ़ा कबूतर
परों में मुँह लपेटे सो रहा है
—मोहम्मद अल्वी
(16.)
कहीं बर्फ़ लपेटे बैठा है कहीं रेत बिछा कर लेटा है
कभी जंगल में डेरा डाले कभी बस्ती आन बसे दरिया
—अली अकबर अब्बास
(17.)
मुझे ख़ुशबू लपेटे जिस्म कुछ अच्छे नहीं लगते
मगर उस को मिरा ख़ाली बदन भी काटता होगा
—फ़ज़्ल ताबिश
(18.)
चुपके चुपके कफ़न लपेटे निकलेंगे जब हम घर से
लाख बुलाओगे रो रो कर हरगिज़ आँख न खोलेंगे
—मुश्ताक़ सिंह
(19.)
ख़ुदा ख़ुदा कर के आए भी वो तो मुँह लपेटे पड़े हुए हैं
न कहते हैं कुछ न सुनते हैं कुछ कसी से जैसे लड़े हुए हैं
—मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
(20.)
कलेजा मुँह को आता है शब-ए-फ़ुर्क़त जब आती है
अकेले मुँह लपेटे रोते रोते जान जाती है
—आसी ग़ाज़ीपुरी
(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)