“लघु कृषक की व्यथा”
लघु किसान कौ हाल बतावौँ, मिलत न कोउ सुनैया,
भीजे धान, घोर बरखा मा, कोउ न मिलत लिवैया।
हय गई रीती, टेँट, बचो न अधन्ना, नाहिं रुपैया,
धन्य जगत की रीत, इहाँ ना बाप बड़ो, ना भैया।
मीत सखा सब बैरी समुझत, बात न कोउ पुछैया,
सावन रिमझिम करत,मोर जियरा मा अगन लगैया।
चूसत “आशा” आम अकिल्ले, कोउ न सँग अवैया,
कहाँ शायरा, कहँ कवियित्री, कोउ न दाद दिवैया।
फूटि कठौती, टूटि पतीली, टप-टप चुअत मड़ैया,
करहु कृपा रघुनाथ, मोरि अब, पार लगावौ नैया..!
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