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16 May 2023 · 6 min read

लघु कथा: – शंकर

माँ एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही हमारे मन में एक ऐसी छवि बन जाती है जो ममतामयी है, बहादुर है और उदार भी है । स्त्री भले ही स्वयं को कमजोर समझती हो, किंतु जब वह माँ बनती है तो अपनी संतान के लिए वह काली का रुप भी धारण कर लेती है । यह कहानी भी ऐसी ही नारी की है |
एक डरी-सहमी सी स्त्री…
जो अपनी संतान के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरती?

कुसुम…
कुसुम 8 माह की गर्भवती स्त्री है । शादी के लगभग 2 वर्ष बाद, आखिरकार उसे माँ बनने का सौभाग्य मिला है । कुसुम बहुत सीधी-सादी लडकी थी, उसने कभी अपने माता-पिता की कोई बात नहीं टाली थी । कुसुम 12वीं कक्षा के बाद डॉक्टर बनना चाहती थी, परंतु माँ ने कहा –

“हमारे यहाँ मौडी (लड़की) कब से डॉक्टर बनने लगी?
यह सब काम तो मर्दों के लिए हैं ।
तू ब्यूटी-पार्लर का कोर्स कर ले, ताकि रिश्ता होने में आसानी हो ।”

माँ ने जैसा कहा, कुसुम ने वैसा ही किया । 6 महीने का कोर्स पूरा होने से पहले ही, कुसुम के लिए रिश्ते आने लगे थे और तकरीबन 5 महीने का कोर्स होते-होते उसकी शादी हो गई, इस कारण उसका कोर्स भी अधूरा रह गया ।
पर क्या फर्क पड़ता है?
कुसुम को वैसे भी कौन सी नौकरी करनी थी?
क्योंकि ये सब तो मर्दों का काम है । उसे तो जीवन भर रोटियाँ ही बनानी है और इसके लिए किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं है ।

शादी होने के बाद भी कुसुम की ज़िंदगी में, चीजें और ख़राब हो गईं । ससुराल में पति के सिवा, सास-ससुर तथा एक देवर था । सास ने कुसुम के आते ही, सारे काम की जिम्मेदारी उसके कंधों पर डाल दी ।वह सुबह से शाम तक, काम ही निपटाती रहती । ऐसे ही 2 वर्ष बीत गए, परंतु कुसु‌म माँ नहीं बन पाई । इन 2 वर्षों में जाने कुसुम ने कितने अत्याचार और ताने सहे |

अब 8 माह की गर्भवती कुसुम को लग रहा था, कि यह बच्चा उसके सारे दुःख खत्म कर देगा । कुछ ही दिनों में वह इस बच्चे को जन्म देने वाली थी, इस खुशी में उसके पैर रुक नहीं रहे थे । प्रसव-पीड़ा हुई, तो गाँव की ही दाई माँ को बुलाया गया और करीब 2 घंटे के बाद, कुसुम ने एक सुंदर और स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया । बच्चे की किलकारी सुनते ही, खुशी से सबकी आँखें नम हो गई | किंतु दाई माँ का चेहरा, एकदम सफेद पड़ गया ।

बाहर से आवाज आई –

“दाई माँ, मौड़ा हुआ है या मौडी?”

उत्तर में दाई माँ को कुछ समझ नहीं आ रहा था, कि आखिर वह क्या कहें? कई बार आवाज लगाने पर भी, जब कोई जवाब नहीं मिला; तो कुसुम की सास (सावित्री) अंदर आई और उसने कहा –

“अरी फूलवती, क्या हुआ है?
तनिक यह तो बता?”

दाई माँ कमरे के कोने में जा कर बोली –

“क्या बताऊँ?
तुम्हारी बहू को किन्नर हुआ है ।”

ये सुनते ही सावित्री के पैरों तले, ज़मीन खिसक गई । उसने छाती पीट-पीट कर रोना शुरू कर दिया ।

कमरे के एक तरफ पड़े बिस्तर पर बेसुध पड़ी कुसुम को भी, इस रोने-पीटने के कारण होश आया | उसने पूछा –

“दाई माँ, क्या हुआ?”
बच्चामर गया है क्या….?
कुछ तो बताइये?”

सावित्री ने गुस्से में तमतमाते हुए कहा –

“अरी, मर जाए तो अच्छा है | नहीं तो मैं खुद, इसका गला घोट दूँगी | कलमुँही, कुलटा… तूने तो हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा । अगर ये ही पैदा करना था, तो बाँझ ही रह जाती |”
दाई माँ से कई बार पूछने पर जो जवाब मिला, वह सुन कर कुसुम के दुःख कई गुना बढ़ गए |

2 दिनों बाद किन्नरों की टोली बधाई देने आई । सब ने आपसी सहमति से फैसला लिया, कि इस बच्चे को उन्हें ही सौंप दिया जाए । इस फैसले में न तो कुसुम की राय ली गई और न उसका पक्ष सुना गया ।

उस बच्चे के जाते ही कुसुम की जिंदगी बद से बदतर हो गई । पहले जो ताने उसे बच्चा न होने के नाम पर मिलते थे, अब उससे कहीं ज़्यादा इसलिए मिलते थे कि उसने एक किन्नर को जन्म दिया ।

ये ताने सुन कर भी कुसुम छुप कर अपने शंकर को देखने, किन्नरों की बस्ती में चली जाती । उसके चेहरे की मुस्कान कुसुम के लिए वही काम करते हैं, जो अक्सर गर्मी से सूखे पौधों की जड़ में जल करता है । उसके धधकते मन को शंकर की मुस्कान, एकदम शीतल कर देती । ऐसे ही देखते ही देखते 4 वर्ष बीत गए । इन चार वर्षों में 1 दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब कुसुम पर अत्याचार न किए गए । शंकर के बाद कुसुम को और कोई संतान नहीं हुई और वह ऐसे ही अपनी जिंदगी गुजारती रही ।

दुःखों में डूबी उसकी ज़िंदगी में, फिर एक बार तूफान आया । पड़ोस के घर में बेटा जन्मा था, तो सारी किन्नरों की टोली बधाई देने वहाँ पहुँची । उन सब के साथ छोटा सा शंकर भी, साड़ी पहन बालों में गजरा सजा वहाँ पहुँचा । वहाँ उन सब ने ताली बजा-बजा कर नाचना-गाना शुरू कर दिया । शंकर भी उन सबको देख वैसे ही ताली बजाने लगा । ये सब देख कुसुम का मन बैठ गया । उसने आव देखा न ताव और जाकर शंकर का हाथ पकड़ कर एक तरफ खींच लिया और सीने से लगा लिया ।

उसने गुस्से भरे लहजे में कहा –

“मेरा बेटा यह सब नहीं करेगा |”

बहुत देर तक बहस छिड़ी रही । अंततः हरिया (कुसुम के पति) ने फैसला सुना दिया –

“अगर इस किन्नर के साथ रहना है, तो इसी समय घर से निकल जाओ |”

कुसुम ने एक पल के लिए भी कुछ नहीं सोचा और नन्हे शंकर का हाथ पकड़ कर, वह वहाँ से चली गई । कुसुम का ऐसा व्यवहार देख, सावित्री भौंचक्की रह गई | क्योंकि उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, कि कुसुम में इतनी हिम्मत है ।

शंकर को लेकर वह चली तो आई थी, परंतु अब समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह दोनों कहाँ रहेंगे?

चलते-चलते दोनों दूसरे गाँव में बने, एक छोटे से मंदिर में पहुँच गए । वहाँ अक्सर गरीबों को खाना खिलाया जाता था । उन दोनों ने वहीं पनाह ली । कुछ दिनों तक तो ऐसे ही मंदिर में रहकर वहाँ की साफ-सफाई कर, दोनों वहाँ भोजन करते और अपना समय व्यतीत करते | परंतु कुसुम जानती थी, कि इन सब से उसका और शंकर का जीवन ठीक से नहीं गुजरेगा । परंतु पितृसत्तात्मक समाज की मारी कुसुम को, कुछ करना भी तो नहीं आता था ।

सहसा उसे याद आया, कि उसने शादी से पहले एक आधा-अधूरा ब्यूटी-पार्लर का कोर्स किया था | उसने गाँव के ही एक छोटे से पार्लर में काम करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे शंकर को स्कूल भेजना भी शुरू कर दिया ।

ऐसे ही काम करते करते सालों बीत गए । अब कुसुम ने खुद का एक बड़ा सा ब्यूटी-पार्लर खोल लिया और पार्लर का नाम रखा –

‘अर्द्धनारीश्वर ब्यूटी पार्लर’

पार्लर में आई एक महिला ने पूछा –

“अरे कुसुम मैं काफी दिनों से तुमसे एक बात पूछना चाह रही थी।तुमने पार्लर का ऐसा नाम क्यों रखा है?”

कुसुम ने कहा –

“शंकर भगवान के एक रुप का नाम अर्द्धनारीश्वर है, जिसमें आधा शरीर पुरुष का होता है और आधा शरीर नारी का । मेरे मायने में शंकर जी का वह रूप सबसे सुंदर है, जिसमें एक औरत की ममता भी है और एक पुरुष का समर्पण भी |”
कुसुम का जवाब सुन वह औरत चौंक गयी। इतने में शंकर को आता देख उसकी तरफ इशारा कर बोली -“यह लो कुसुम आ गया डॉक्टर की वर्दी पहने तुम्हारा शंकर”।

शंकर को डॉक्टर की पोशाक में देख हर रोज कुसुम गर्व और खुशी महसूस करती थी तथा अपने जीवन में सहे सारे कष्टों को बड़ी आसानी से भूल जाती थी ।

अक्सर कुसुम जब पार्लर में अकेली बैठी होती, तो इस बात के बारे में ज़रूर सोचती कि आखिर उसने इतनी हिम्मत पहले क्यों नहीं दिखाई?

उसे समझ नहीं आता, कि क्या पहले उसके अंदर वह हिम्मत नहीं थी?

या फिर हिम्मत थी, परंतु उसने कभी उस हिम्मत को पहचाना ही नहीं था?

इन सवालों में उलझी कुसुम अक्सर शंकर भगवान का शुक्रिया करती, कि आखिर उन्होंने उस दिन उसे इतनी हिम्मत दी और वह अपनी संतान के साथ-साथ अपना जीवन भी संवार पाई

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