#लघुकथा-
#लघुकथा-
■ सब से बड़े दानदाता।
【प्रणय प्रभात】
सुबह आंख खुलते ही मोबाइल खोला। फेसबुक खुलते ही पता चला कि अमर लाल मर गए। रात तक अच्छे भले थे। सुबह होने से पहले ही बुला लिया ऊपर वाले ने।
मामूली आदमी नहीं थे अमर लाल। शहर के नामचीन धनाढ्य लोगों में होती थी उनकी गिनती। दिन-रात दीन-दुनिया से बेख़बर। बाप का दिवाला पिटने के बाद से उलझे थे कारोबारी डंडे-सट्टे में। चापलूसी और धूर्तता विरासत में मिली थी। फिर से अमीर बनते देर नहीं लगी। सब से बड़े दान-दाता निकले अमर लाल। मरने से पहले दो मॉल, तीन फेक्ट्री, दो आलीशान बंगलों सहित करोड़ों की ज़मीन-जायदाद दान कर गए चुपचाप। अपने इकलौते सपूत के नाम। जो उन्हें पीठ पीछे नहीं मुंह पर गलियाता रहा जीते जी। इकलौता होने के विशेषाधिकार का लाभ उठाते हुए।
कुछ भी साथ ले जाने का परमिट नहीं था ना। शायद इसी लिए मजबूर हुए धृतराष्ट्र के कलियुगी अवतार अमर लाल। अपनी वसीयत दुर्योधन के लेटेस्ट वर्ज़न अपने सपूत के नाम करने पर। मोहलत भी नहीं मिली मरने से पहले फेर-बदल की। अपनी पुश्तेनी फ़ितरत व रिवायत के मुताबिक। वो ख़ुद कौन से श्रवण कुमार रहे दौलत के खुमार में मस्त अपने बाप के। बस इसीलिए छोड़ गए सब कुछ। अब सब कुछ धरा पर धरा हुआ है। हमेशा घमंड के आसमान में उड़ने वाले अमर लाल का बेडोल सा शरीर भी।
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●संपादक●
[न्यूज़ & व्यूज़]
श्योपुर (मध्यप्रदेश)