#लघुकथा
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■ एक बड़ा सा पार्सल
【प्रणय प्रभात】
डोर-बेल बजते ही रीना ने दरवाज़ा खोला। सामने कूरियर एजेंट खड़ा था। हाथ में बड़ा सा एक पार्सल लिए। मायूस सी रहने वाली रीना चकित थी। इन दिनों न कोई प्रसंग न प्रयोजन। फिर यह किसने भेजा और क्यों? पार्सल पर नाम-पता उसी का था। उसने काग़ज़ पर साइन कर के पार्सल लिया और धन्यवाद देते हुए दरवाज़ा लगा लिया।
चेहरे पर छाई चिर-परिचित उदासी फ़िलहाल उत्सुकता के नीचे दबी थी। रीना ने आनन-फानन में सोफे पर बैठ कर पार्सल को खोला। अच्छी तरह से पैक बड़े से डिब्बे में दूसरा डिब्बा नज़र आया। लगभग आधे घण्टे की क़वायद के बाद 11वें डिब्बे में से लाल रंग का 12वां छोटा डिब्बा निकला। इस डिब्बे में था सुर्ख लाल मखमल का बना एक प्यारा सा दिल। साथ में एक छोटा सा पत्र भी। डिब्बे के खुलते ही कमरे को एक मीठी सी खुशबू ने महका दिया। जो पत्र और दिल से आ रही थी।
छोटे से पत्र में केवल इतना सा लिखा था कि- “नन्हे से दिल पर इतनी सारी उदासी की परतों का बोझ क्यों? कृपया उसे खोलिए और खुल कर मुस्कुराने दीजिए। माता-पिता को कोविड त्रासदी में खोने के बाद ख़ुद को पूरी तरह तन्हा मानने वाली रीना की आँखों में अब एक चमक सी थी। चेहरे पर हल्की सी मुस्कान भी। पार्सल भेजने वाले का एक साल बाद भी उसे कुछ पता नहीं चला है। मगर अब रीना का ज़िन्दगी के प्रति रुख पूरी तरह बदल चुका है। उसे लगता है कि कोई तो है, जिसे उसकी परवाह है।
वहीं दूसरी ओर उसकी खुशी से खुश उसकी मकान मालकिन भी है। जो कोरोना काल में अपने पति को खोने के बाद भी अपना साहस नहीं खोई थी। उसे सुक़ून था कि उसकी एक छोटी सी पहल ने एक बड़ा कारनामा कर दिखाया मुझे लगता है कि ऐसी कोई पहल आप भी कर सकते हैं। मेरी तरह संवेदनशील हों तो।।
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