#लघुकथा-
#लघुकथा-
■ नेताजी का तुलादान।।
【प्रणय प्रभात】
अपने पैसों से बंटवाई गई मालाओं को स्वीकारते हुए छगन लाल आगे बढ़ रहे थे। इस जुलूस की मंज़िल था अगला तिराहा। जहां अपने ही खर्चे पर उन्हें केलों से तुलना था। चार ढोल वाले माहौल को गुंजा रहे थे। महीने भर से मुफ़्त की रोटी तोड़ रहे सीज़नल सपोर्टर गले फाड़ कर नारे लगा रहे थे।
दर्ज़न भर भाड़े के टट्टू गले से उतरने वाले हार आगे मिल रहे राहगीरों को थमाने में जुटे थे। जो लौट कर छगन लाल जी के गले को ढंक रहे थे। एकाध सैकड़ा लोग तिराहे पर तराजू सजाए खड़े थे। जिनमें आधे से ज़्यादा पेशेवर थे। जो यही तुलादान छगन लाल के दोनों प्रतिद्वंद्वियों का भी संपन्न कराते अखबारों में छप चुके थे। बाक़ी चाय-पकौड़ी का एहसान चुकाने के लिए भीड़ का हिस्सा बने हुए थे। जिनमें ज़्यादातर इसी इलाके के निवसी थे।
मौके पर दर्ज़न भर से अधिक क्रेटों में अधपके केलों के झुंड भरे थे। जिनसे छगन लाल की तुलाई होनी थी। अनगिनत बच्चे कथित तुलादान के बाद हाथ आने वाले केलों के चक्कर में बीते दो घण्टों से तिराहे पर जमा थे। जिन्हें पहले भी ऐसे कार्यक्रम में केलों और अमरूदों का स्वाद मिल चुका था।
जुलूस और जलसे के बीच चंद कदमों का फ़ासला बाक़ी था। पिछली बार जनादेश के मामले में दुर्गति का शिकार हो चुके छगन लाल के चेहरे पर हमेशा सी धूर्त मुस्कान थी। तन-मन फूल-पत्तों से सजी तराजू के पलड़े में सवार होने को बेताब था। सड़क के इर्द-गिर्द दरवाज़ों और खिड़कियों से झांकते मतदाताओं पर उनका ध्यान कम था।
पूरी टकटकी सामने से माला लेकर अपनी ओर बढ़ते लोगों पर लगी थी। जो “तेरा तुझको अर्पण” वाले अंदाज़ में रस्म-अदायगी करते हुए भी कुछ माहौल तो बना ही रहे थे। वोट देने की अपील भीड़ में शामिल पार्टी के आधा और परिवार के पौन दर्ज़न सदस्य करते चल रहे थे।
दूसरी ओर इन सबके बीच नज़ारों का मज़ा लेते आम मतदाताओं के मन में अमूमन एक ही सवाल था। सवाल बस यह कि जो आज “याचक” होकर अकड़ छोड़ने को राज़ी नहीं, वो कल “दाता” बन कर क्या खाक़ भला करेगा? वैसे भी उनका बीता कार्यकाल सब के ज़हन में था। जिसने उनका क़द और मद उनके वज़न की तरह चौगुना किया था। इस सच के मूक गवाह क्रेटों में भरे केले भी थे। जो इस बार पहले से तीन गुना अधिक थे। छगन लाल के वज़न का अनुमान लगाए बैठे चेले-चाटों की सोच के मुताबिक।।
■ प्रणय प्रभात ■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)