#लघुकथा :–
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■ “पारो” बनी “अनारो”
【प्रणय प्रभात】
अधेड़ उम्र का देवदास कमसिन पारो की पुष्पहार से सज्जित तस्वीर के आगे अगरबत्तियां जला-जला कर बेहाल था। पिचके गालों पर सूखे आंसुओं का खार जम सा चुका था। लाल-लाल आंखें और सूजे हुए पपोटे उसकी बेज़ारी के गवाह थे। खिचड़ी से बालों में वक़्त की गर्द साफ-साफ नज़र आ रही थी।
अकस्मात, आकाशवाणी हुई। आवाज़ गूंजी-
“ऐ नादान! ज़रा इधर भी दे ध्यान। फ़ोकट में टसुए मत बहा। हज़ामत बना कर ढंग से नहा। तू जिस पारो की याद में फड़फड़ा रहा है। वो मस्ती में जीवन बिता रही है। पुनर्जन्म के बाद “अनारो” बन कर रोज़ नई महफ़िल सजा रही है।”
देवदास कुछ देर हतप्रभ सा रहा। फिर धीरे से घुटनों पर हाथ रख कर उठा। पारो की तस्वीर के साथ अधजली अगरबत्तियों और बासी मालाओं का ढेर उठाया। सबको एक मैले-कुचैले से झोले में भरा और जा बैठा दरवाज़े पर।
जानता था कि स्वच्छता का नग्मा गुंजाती नगर-निगम की कचरा-गाड़ी कुछ देर में आने ही वाली है।
■ प्रणय प्रभात ■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)