लघुकथा क्या है
लघुकथा क्या है
प्रत्येक ‘लघुकथा’ एक प्रकार की लघु कथा होती है किन्तु प्रत्येक लघु कथा ‘लघुकथा’ नहीं होती है। किसी लघु कथा या छोटी कहानी में जब कुछ अभिलक्षण जैसे क्षणिकता, संक्षिप्तता, तीक्ष्णता आदि समाविष्ट हो जाते हैं तो वह लघुकथा बन जाती है। यह मात्र एक बोध है, इसे परिभाषा मानना उचित नहीं होगा। सटीक परिभाषा को परिभाष्य का एक ऐसा शब्द-चित्र होना चाहिए जो अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभव दोष से मुक्त हो। ऐसा प्रायः संभव नहीं हो पाता है। अस्तु अच्छा रहेगा कि हम लघुकथा को किसी परिभाषा में बाँधने का प्रयास न कर उसके अभिलक्षणों को समझने का प्रयास करें जिससे उसका स्वरुप अधिक से अधिक स्पष्ट हो सके।
(1) शीर्षक
लघुकथा का शीर्षक निर्धारित करना एक विशेष कला है जिसे शब्दों में बाँधना संभव नहीं है, फिर भी समझा जा सकता है। शीर्षक में सार्थकता तो होनी चाहिए किन्तु मुख्य कथ्य का उदघाटन नहीं होना चाहिए जिससे पढने वाले व्यक्ति के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो। शीर्षक में कम से कम शब्द हों तो अधिक आकर्षक लगता है।
(2) प्रस्तावना या भूमिका
लघुकथा के प्रारम्भ में प्रस्तावना या भूमिका का कोई स्थान नहीं है। इसका प्रारंभ एक ऐसे वाक्य से होना चाहिए जिसे पढ़ कर आगे पढने की प्रबल उत्कंठा जग उठे। यह प्राम्भ किसी कथ्य या संवाद से हो सकता है।
(3) आकार
नाम के अनुरूप लघुकथा का आकार बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए। इसके शब्दों की सीमा क्या हो? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए यह ध्यातव्य है कि इसे कहानी की न्यूनतम सीमा से कम ही होना चाहिए। इस प्रकार लघुकथा में शब्दों की उच्चतम सीमा एक हजार शब्दों की मानी जा सकती है लेकिन इससे लघुकथा कहानी के निकट लगने लगती है। न्यूनतम सीमा पर विचार करें तो पचास से कम शब्दों की लघुकथाएं भी लिखी गयी हैं लेकिन सामान्यतः इतने कम शब्दों में कथात्मकता का अभाव हो जाता है और वह क्षणिका या प्रतीकात्मक कविता जैसी लगने लगती है. लघुता के साथ कथात्मकता भी अनिवार्य है। अधिक तर्क-वितर्क में न जायें तो सामान्य प्रेक्षण के आधार पर लघुता और कथात्मकता दोनों को अक्षुण्ण रखते हुए डेढ़ सौ से सात सौ शब्दों की सीमा में एक अच्छी लघुकथा लिखी जा सकती है और लघुकथा तीन सौ शब्दों के जितनी निकट रहती है उतनी अधिक प्रभावशाली लगती है। लेकिन यह निर्धारण मात्र दिशा-निर्देश के लिए है अर्थात इसे या किसी अन्य सीमा को पत्थर की लकीर मानना उचित नहीं है। इसे रचनाकार के विवेक पर छोड़ना उचित है किन्तु वह भी इस प्रतिबन्ध के साथ कि उच्चतम या न्यूनतम सीमा के उल्लंघन की भी एक सीमा होती है।
(4) कालखण्ड
लघुकथा का कथानक किसी एक विशेष कालखण्ड में केन्द्रित होना चाहिए अर्थात उसमें किसी क्षणिक घटना का उल्लेख होना चाहिए किन्तु उसके माध्यम से एक लम्बे कालखण्ड को ध्वनित या व्यंजित किया जा सकता है और पूर्व-दीप्ति का कुशलता पूर्वक प्रयोग कर दूसरे कालखण्ड का समावेश भी किया जा सकता है. यदि लघुकथा का कथानक सीधे-सीधे कई कालखण्डों से होकर निकलता हो तो इसे कालखण्ड-दोष माना जायेगा।
(5) लेखकीय प्रवेश
लघुकथा को इस प्रकार बुना जाता है कि उसके समाप्त होते-होते उसका सन्देश बिना कहे स्वतः पाठक तक पहुँच जाता है। यह सन्देश प्रायः लघुकथा के किसी पात्र द्वारा संप्रेषित किया जाता है किन्तु कभी-कभी प्रतीकों द्वारा भी रोचकता से संप्रेषित होता है. इसके विपरीत जब लेखक स्वयं अपने शब्दों में सन्देश प्रेषित करने लगता है तो इसे लेखकीय प्रवेश कहते हैं. लघुकथा में लेखकीय प्रवेश वर्जित है।
(6) इकहरी प्रकृति
लघुकथा किसी एक विशेष विषय पर केन्द्रित होती है और वह आदि से अंत तक उसी विषय का प्रतिपादन करती है. उसमें अन्य विषयों या उपकथाओं का समावेश वर्जित होता है। इसलिए लघुकथा को इकहरी या एकांगी विधा कहते हैं। कभी-कभी कोई प्रसंग बीच में आकर मुख्य कथानक को प्रखर बना देता है लेकिन तब वह अति संक्षेप में एक दीप्ति के रूप में आता है, उपकथा के रूप में नहीं।
(7) प्रतीक-विधान
जब किसी अप्रस्तुत कथ्य को व्यक्त करने के लिए किसी दूसरी संज्ञा को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि अप्रस्तुत का बिम्ब स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाता है तो प्रस्तुत संज्ञा को प्रतीक कहा जाता है जो गागर में सागर भरने का कार्य करता है। लघुकथा में प्रायः मानवीय पात्रों को व्यक्त करने के लिए अन्य प्रतीकों का सटीकता से प्रयोग किया जाता है, इससे अभिव्यक्ति में स्पष्टता और प्रखरता आ जाती है। प्रतीकों के प्रयोग से जटिलता नहीं आनी चाहिए और समझने में बाधा नहीं पड़नी चाहिए अपितु कथ्य का चमत्कारी उदघाटन होना चाहिए, तभी प्रतीकों का प्रयोग सार्थक होता है।
(😎 लघुता
लघुकथा की एक बड़ी विशेषता उसकी लघुता है। इसको बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि किसी बात को अनावश्यक विस्तार न देकर कम से कम शब्दों में कहा जाये, पात्रों की संख्या कम से कम हो, किसी पात्र का चरित्र चित्रण न किया जाये अपितु बिना किये ही ध्वनित हो जाये, कथानक में कोई मध्यांतर न हो, यथासंभव अभिधा के स्थान पर लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग किया जाये। शब्दों के अपव्यय से बचा जाये। सटीक प्रतीकों के माध्यम से गागर में सागर भरने का प्रयास किया जाये ।
(9) संवाद शैली
संवाद शैली लघुकथाओं में बहुत प्रभावशाली होती है। संवाद की बुनावट ऐसी होनी चाहिए कि उससे कथ्य, पात्र-परिचय, काल-खण्ड, पारस्परिक सम्बन्ध, परिवेश आदि स्वतः लक्षित होते रहें और इस प्रकार विस्तृत वर्णन से बचा जा सके। संवाद की भाषा पात्र के अनुरूप स्वाभाविक होनी चाहिए। संवादों के साथ उचित प्रकार से उद्धरण, संबोधन, अल्प विराम आदि चिह्नों का सटीकता से प्रयोग होना चाहिए। सबकुछ इस प्रकार होना चाहिए कि संवाद में पात्र और परिवेश जीवंत हो उठें। संवाद बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है इसके समावेश से लघुकथा बहुत रोचक और आकर्षक हो जाती है। कभी-कभी पूरी लघुकथा को भी संवाद शैली में प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया जा सकता है।
(10) कथ्य
प्रायः लघुकथा में सामाजिक विसंगति, पारिवारिक समस्या, धार्मिक आडम्बर, रूढ़िवाद, संबन्धों की संवेदनहीनता, विकृत आधुनिकता आदि ऋणात्मक विषयों पर लघुकथाएं लिखी जाती हैं किन्तु कथ्य को किसी परिधि में सीमित करना ठीक नहीं है। सभी प्रकार की कोमल भावनाओं के साथ सकारात्मक विषयों को भी सुरुचिपूर्वक लघुकथा का विषय बनाया जा सकता है। कुछ रचनाकारों की दृष्टि में लघुकथा द्वारा एक सकारात्मक सोच प्रस्तुत करना लेखक का दायित्व है और यदि विषय वस्तु ऋणात्मक हो तो उसके साथ सकारात्मक सन्देश अनिवार्य है किन्तु यह दृष्टि एकांगी है। समाज के केवल सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करना ही लेखकीय दायित्व नहीं है अपितु लघुकथाकार जब समाज के ऋणात्मक पक्ष को अपनी रचना में प्रस्तुत करता है तो वस्तुतः वह एक सचेतक की भूमिका में जन-जागरण का कार्य करते हुए अपने लेखकीय दायित्व का सार्थक और सकारात्मक निर्वाह कर रहा होता है। कटु यथार्थ का उदघाटन भी अपने में एक सार्थक सन्देश है जो समाज की आँखें खोलने का काम करता है।
(11) भाषा
यों तो लघुकथा हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी आदि किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है किन्तु उस भाषा का स्तर क्या हो, यह विचारणीय है। यदि लघुकथा को लोकप्रिय बना कर जन-जन तक पहुँचाना है तो उसकी भाषा सरल, सुबोध होनी चाहिए। भाषा की परिशुद्धता और तथाकथित साहित्यिकता की तुलना में व्यावहारिकता को वरीयता देना आवश्यक है। लघुकथा में बोलचाल की भाषा का प्रयोग हो तो अधिक अच्छा रहे। जहाँ तक संवाद की भाषा का प्रश्न है, संवाद की भाषा पात्र और परिवेश के अनुकूल होनी चाहिए। पात्र जिस भाषा-क्षेत्र से हो, संवाद में उस क्षेत्र के देशज शब्दों का समुचित प्रयोग परिवेश और पात्र दोनों को जीवन्त कर देता है।
(12) अंत
लघुकथा का अन्त या समापन बहुत महत्वपूर्ण होता है। सच बात तो यह है कि ‘अन्त’ ही लघुकथा का लक्ष्य होता है। अंत से पहले पूरी लघुकथा में इस लक्ष्य पर संधान किया जाता है जैसे कोई बहेलिया धनुष की प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा कर अपने लक्ष्य पर संधान करता है और फिर ‘अन्त’ में उस लक्ष्य पर सटीकता से प्रहार कर दिया जाता है जैसे बहेलिया तीर छोड़ कर लक्ष्य को वेध देता है। संधान और प्रहार की इस प्रक्रिया में एक विशेष प्रकार का चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न होता है जिससे पाठक ‘वाह’ कर उठता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि अन्त का पहले से पूर्वाभास नहीं होना चाहिए।
उपर्युक्त बातों को आत्मसात करने से लघुकथा का बिम्ब स्वयमेव उभर कर सामने आ जाता है और स्वविवेक के साथ इनका प्रयोग करने से अपनी निजी पहचान बनाते हुए लघुकथा-लेखन के उत्कर्ष को प्राप्त किया जा सकता है।
– आचार्य ओम नीरव
(मेरे लघुकथा-संग्रह ‘शिलालेख’ से)
संपर्क – 8299034545