लकीरें
कॉलेज में दाखिले का पहला दिन था। छात्र-छात्राओं और अभिभावकों की भीड़ को देख कर अनायास ही किसी बड़े रेलवे स्टेशन की याद आ रही थी। इसी भीड़ में एक मासूम चेहरा किनारे खड़ा हो कर इन्तज़ार कर रहा था कि कब भीड़ छँटे और वह अपना प्रवेश आवेदन-पत्र जमा कर सके।
लाइन में खड़ा शिवेश बहुत देर से उसे देख रहा था। जब वह नजदीक पहुँचा तो उसने अचानक ही पूछ लिया, “क्या आपको भी फॉर्म जमा करना है?”
“जी! लेकिन भीड़ बहुत ज़्यादा है।” एक सौम्य स्वर उभरा।
“लाइए, मैं जमा कर देता हूँ।” शिवेश ने कहा। लड़की की सहमति पर उसने फॉर्म जमा कर दिया।
अगले सप्ताह के प्रथम दिन जब शिवेश ने कक्षा में प्रवेश किया तो उसे वही लड़की बैठी हुई दिखाई दी। उसके कदम अनायास ही उसी ओर बढ़ गए। बातों-बातों में पता चला कि लड़की का नाम बेबी है। शिवेश के मन में बेबी के प्रति प्रेम का अंकुरण पहली मुलाक़ात में ही हो चुका था। उसने बेबी को केन्द्रबिन्दु में रख कर अपनी टूटी-फूटी भाषा में न जाने कितनी कविताएँ लिख डालीं। उसे लगता था, जैसे किसी ने उसके दिल के समतल सतह पर तमाम आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच दी हों, और उन्हीं रेखाओं के झूले में उसका स्वर्णिम-स्नेहिल भविष्य झूल रहा हो।
धीरे-धीरे दिन बीतते रहे और शिवेश के मन में पल रहा प्यार अंकुर से बढ़कर एक पौधे के समान हो गया। वह जब भी मौका देखता, बेबी से बात करने की हरसम्भव कोशिश करता। परन्तु कई बार हिम्मत जुटाने के बावजूद वह अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर सका।
अन्तिम वर्ष की परीक्षाओं का कार्यक्रम घोषित हो गया। सारे विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी में लग गए, किन्तु शिवेश का मन पढ़ाई में ज़रा सा भी नहीं लग रहा था। वह बेबी से दूर होने की कल्पना से ही उदास रहने लगा। आखिर उसने बेबी के नाम एक प्रेम-पत्र लिखा और अपने दोस्त के माध्यम से भेज दिया। लेकिन कई दिनों तक इन्तज़ार के बाद भी उसके पत्र का जवाब नहीं आया। परीक्षाएँ सम्पन्न हुईं और सारे विद्यार्थी अपने-अपने घर चले गए। शिवेश भी अपने गाँव लौट आया किन्तु बेबी की याद लगातार उसके दिल में बनी रही।
समय पंख लगा कर उड़ता रहा। इस बीच शिवेश पढ़ाई में अपनी मेहनत के बल पर जिले का उच्च अधिकारी बन गया और उसने पूनम नाम की एक सुन्दर, सुशिक्षित लड़की के साथ शादी कर ली। उसके दिल की लकीरें अब धुँधली पड़ने लगीं थीं, लेकिन काव्य-रचना वह नहीं छोड़ सका। कविता-लेखन अब उसके जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया था। वह जब भी किसी कार्यक्रम अथवा समारोह में जाता, लोग उससे कविताएँ सुनाने का आग्रह करते।
शिवेश अपनी ज़िन्दगी से बहुत खुश था। हर तीन वर्ष बाद नये शहर में स्थानान्तरण थोड़ा श्रमसाध्य तो था लेकिन बचपन से ही नयी जगहों को देखने की उत्कंठा के कारण उस पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसी स्थानान्तरण के क्रम में एक दिन उसे अतिशीघ्र जयपुर में कार्यभार ग्रहण करने का आदेश मिला। पूनम बहुत खुश थी क्योंकि वह कई बार शिवेश से जयपुर घुमाने का आग्रह कर चुकी थी किन्तु समय नहीं मिलने से शिवेश उसे घुमा नहीं पा रहा था।
इधर शिवेश के साथ पहली बार ऐसा हुआ कि उसका मन इस शहर को छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा था। उसने अपनी कई मजबूरियाँ दिखाते हुए स्थानान्तरण रुकवाने हेतु एक प्रार्थना-पत्र लिखा और तैयार हो कर ऑफिस चला गया। वहाँ पहुँचने पर उसे याद आया कि प्रार्थना-पत्र तो घर पर ही छूट गया है।
दोपहर हो गयी थी। शिवेश किसी फाइल में उलझा हुआ था कि तभी चपरासी अन्दर आया और एक कागज मेज पर रख दिया। शिवेश ने कागज को सरसरी तौर पर देखा, किसी नयी लड़की की नियुक्ति उसके ऑफिस में सहायक के पद पर हुई थी और वह उससे मिलना चाहती थी। उसने चपरासी से लड़की को अन्दर भेजने को कहा और अपनी फाइल देखने लगा।
“नमस्ते सर!” एक मधुर आवाज़ वातावरण में स्वर-लहरी सी गूँज उठी।
शिवेश ने फ़ाइल से नज़रें हटाईं और उस लड़की को देखा तो देखता ही रह गया। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सामने बेबी खड़ी थी, उसके कॉलेज के दिनों की सहपाठिनी। अब भी उसकी ज़ुल्फ़ें लहरा-लहरा कर शिवेश को कुछ लिखने के लिए प्रेरित कर रही थीं। उसे लगा, मानो उसके दिल की मिटती लकीरों को किसी ने और गहरा कर दिया हो। बेबी भी उसे एकटक देख रही थी, जैसे कोई सपना देख रही हो।
अपनी भावनाओं को छिपाने की कोशिश करते हुए शिवेश ने उसे बैठने का इशारा किया। प्रारम्भिक कुशल-क्षेम के बाद दोनों अतीत की बातें छेड़ बैठे। बातों-बातों में शिवेश ने अपने पत्र का ज़िक्र किया तो बेबी चौंक गयी, उसे कोई पत्र नहीं मिला था। शायद शिवेश के दोस्त ने बेबी को वह पत्र दिया ही नहीं। थोड़ी देर बाद मालूम हुआ कि उसी दोस्त से बेबी की शादी हुई है। बेबी बार-बार पूछ रही थी कि उसने पत्र किसके हाथ से भेजा था, लेकिन शिवेश ने उस दोस्त का नाम नहीं बताया। बस, मन ही मन सोचता रहा, “काश! मैंने स्वयं ही वह पत्र बेबी को दिया होता।” किन्तु सोचने से क्या होता है? समय तो हाथ से निकल चुका था, और बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता।
शिवेश यह सोचकर अपने मन को तसल्ली देता रहा कि शादी भले ही नहीं हो पायी लेकिन अब कम से कम रोज़ हमारी मुलाक़ातें तो होंगी। जीवन-साथी नहीं बन सके परन्तु ऑफिस में तो दिन भर साथ-साथ रहने का अवसर मिलेगा। बेबी को सिर्फ दूर से देख लेना ही अब उसे बहुत बड़ी उपलब्धि लगने लगी। आज उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि किसी भी कीमत पर अपना स्थानान्तरण रुकवाना है। ऑफिस से घर लौटने पर वह बहुत थका-थका सा लग रहा था। रात का खाना भी उसने नहीं खाया। पूनम बार-बार उसकी चिन्ता का कारण पूछती रही, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया, सर दर्द का बहाना बना कर लेट गया।
रात के दो बजे थे। स्थानान्तरण रुकवाने का प्रार्थना-पत्र अब भी स्टडी रूम की मेज पर रखा था। शिवेश की आँखों से नींद कोसों दूर भाग गयी थी। उसके दृष्टिपटल पर कभी पूनम तो कभी बेबी का चेहरा घूम रहा था। उसके दिल में अजीब सी हलचल मची हुई थी। वह अचानक एक गम्भीर निर्णय ले कर उठा और हल्के कदमों से चलकर पूनम के पास आया। वह गहरी नींद में सो रही थी।
शिवेश ने पूनम के निश्छल, मासूम चेहरे को ग़ौर से देखा। उसकी आँखों में आँसू भर आये और वह धीरे-धीरे बुदबुदा उठा, “नहीं पूनम! मैं तुम्हें कोई कष्ट नहीं दे सकता। बेबी मेरा अतीत थी और तुम मेरा वर्तमान हो। मैं अपने वर्तमान को अतीत के हाथों मिटते हुए नहीं देख सकता।”
शिवेश बहुत देर तक वहीं बैठ कर चुपचाप आँसू बहाता रहा। फिर वह उठा और स्टडी रूम में पहुँचा। प्रार्थना-पत्र अब भी मेज पर रखा हुआ था। उसने उसे उठाया और एक झटके में फाड़कर फेंक दिया। उसे लगा, जैसे आँसुओं ने उसके दिल की लकीरों को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दिया हो।
सुबह के चार बजते ही शिवेश ने पूनम को जगाया और बोला, “अभी तक सो रही हो, जयपुर नहीं चलना है क्या? जल्दी से तैयार हो जाओ।”
पूनम अपने पति के अन्दर आये इस बदलाव को देख कर एक बार तो आश्चर्यचकित हो गयी, फिर खुशी-खुशी मन से जयपुर जाने की तैयारी में लग गयी।
~समाप्त~