* र र रा गई रे कुर्सी गई *
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
@ र र रा गई रे कुर्सी गई@
बिन काऊ से डोल रहे अब
रस खान बना करते थे
अच्छी ऊंची कुर्सी की जो
शान भरा करते थे
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
कुर्सी संग थी शान निराली
कुर्सी संग ही खो गई
फूले फूले रहते थे सो
फुस्स हवा सी निकल गई
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
फोकी उंची वाली कोठी थी जो
वो भी अब तो धरा धुल मा मिल गई
र र रा गई रे कुर्सी गई
बिनकाऊ से डोल रहे अब
बड़े बड़े बदमाशों की जो
ढाल बना करते थे
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
बिनकाऊ से डोल रहे अब
रसखान बना करते थे
मैया मोरी ऊंची परवाजों की
उड़ान अधूरी रह गई
रोज रोज विदेशों की वो
सैर बेगानी हो गई
संतापों ने मन को घेरा
घर में ही है अब तो डेरा
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
मेले से लगते थे हर दम
घर द्वारे सजते थे हर दम
साहिब जैसे लगते थे हर दम
चूड़ी अचकन धोती कुर्ता
उस पर टोपी कलगी वाली
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
कैसे कैसे स्वाँगों से
नित रूप धरा करते थे
रे रे ठुमक ठुमक कर
पग थे धरते मुह में
लेकर पान बनारसी, चबा चबा ,
इधर उधर थे थूका करते
थे चारों तरफ चमचे ही चमचे
कडछे जैसे बन के हर पर
शान बघारा करते थे
इसको नोचो उसको कूटो,
जो बात न माने
उसके घर को लूटो ,
महिलाओं की ये तो भैय्या
बिल्कुल भी नाहीं
सुना करते थे //
र र रा गई रे कुर्सी गई ||
बिन काऊ से डोल रहे अब
रस खान बना करते थे
अच्छी ऊंची कुर्सी की जो
शान भरा करते थे
र र रा गई रे कुर्सी गई ||