रौशनी मेरे लिए
रौशनी मेरे लिए
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हिस्सेदारी चाहना गुनाह नहीं है
मुझे चाहिए रौशनी।
जंगलों के बीच फंसा हुआ मैं मृतवत
चाहिए ही संजीवनी।
अंधेरे कोने में सिमटा हुआ हर छोर
पहाड़ी से उतरकर और
द्विगुणित करता हुआ मेरा भय।
छीजता जा रहा होता है
मेरे हाथों और मन से मेरे होने का समय।
रौशनी मांगना गुनाह नहीं है।
मेरे सुबह होने में ही वक्त क्यों लगता है!
मेरे रौशनी से ही अंधेरा क्यों टपकता है।
मुर्गे के सिर पर सा कलगी नहीं है
मेरे माथे पर इसलिए क्या!
कुचला हुआ मेरा अहम् और अहंकार
इसलिए क्या!
गौरव की चाहना,गुनाह नहीं है।
भोर का सूरज और दोपहर की धूप
वक्र है।
सौंदर्य किसीका हो, मेरा तो लगता कुचक्र है।
तालाब का जल पहरेदारी में है
और कुएं का निगरानी में।
किनारे बनाए रखा है जिसने
प्यास में ओठ काटता, गला दबाता
भाले लिए खड़ा है नहीं क्या नादानी में?
प्यास बुझाना गुनाह नहीं है।
विद्रोह बपौती नहीं है किन्तु,
हमारे लिए मृत्युंजयी भी नहीं।
मृत्यु से डरे हुए विद्रोह न करें
कि
विजय की कामना लेकर
विरोध के रास्ते उकेर जाएँ यहीं।
जय का प्रण गुनाह नहीं है।
आवाज उठाकर चुप हो जाना
हमारी नीयत हो ही नहीं सकती।
हाशिये पर के लोग हैं हम
काश!
आग हमारे लिए भी धधकती।
जंगलों को भस्म कर दें
आसमान को नीचे खींच लें
रौशनी के लिए।
तुम्हारे भविष्य से
समझौता नहीं करना है पर,
नियंता से करना गुनाह नहीं है।
रौशनी मांगना गुनाह नहीं है।
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